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________________ * मिथ्यात्व [ ५६५ और बड़े पुण्योदय से प्राप्त हुए सम्यक्त्व- रत्न को सँभाल कर रखना चाहिए । मिथ्यादृष्टि का समस्त ज्ञान अज्ञान ही होता है । कहा है: सदसदविसेसणाच भवहेउ जहिच्छिभोवलं भाश्रो । णायफलाभावाश्रो, मिच्छादिट्ठिस्स अण्णा ॥ अर्थात् - सत् और असत् का विवेक न होने से, संसार के कारणभूत कर्मों का बंध जैसा का तैसा रहने से, पदार्थ को मनमाना जानने से और ज्ञान के वास्तविक फल की प्राप्ति न होने से मिथ्यादृष्टि का जानना अज्ञान रूप ही है । ज्ञानवादी ज्ञान की निन्दा करके अज्ञान को श्रेष्ठ और हितकर बतलाते हैं और भोले लोगों को ज्ञान से वंचित रखते हैं । यह पच्चीस मिथ्यात्वों का संक्षिप्त कथन जानना चाहिए । मिच्छे अतदोसा, पयडा दीसन्ति न वि गुणलेसो । तहवि य तं चैव जीवा, हो मोहंध निसेवंति ॥ - वैराग्यशतक | अर्थात् — मिथ्यात्व में अनन्त दोष हैं, यह बात साफ मालूम होती है, गुण का लेशमात्र भी नहीं है, किन्तु मोह से अंधे बने हुए जीव फिर भी उसी का सेवन करते हैं । खेद । दूर करने के लिए गोमेघयज्ञ करवाया था। उससे पाण्डवों का पाप कम नहीं हुआ । तब माझ दौड़ते ये । वहाँ सिर्फ गाय की भाँत मिली और उसे उन्होंने गले में डाल लिया तभी से जनेऊ डालने का रिवाज चला। इसी प्रकार हिन्दुओं की गोपूजा की उत्पत्ति की भी विचित्र कथा लिखी है। ऐसी ऐसी और भी अनेक मनगढंत कल्पनाएँ इन सत्पंथी लोगों ने की हैं। इस प्रकार कलियुग में लोग अपने-अपने मतों की स्थापना करके अपना उल्लू सीधा करते हैं।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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