SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 609
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * मिथ्यात्व [ ५६३ इसी भव में आत्मा पर काबू न रखने वाले क्यों दुःखी देखे जाते हैं ? जो अभक्ष्य, अपथ्य का सेवन करते हैं, वे वात, पित्त, कफ आदि अनेक रोगों से पीड़ित होते देखे जाते हैं। चोरी करने वाले कारागृह में पड़ कर कष्ट भोगते हैं और व्यभिचार सेवन करने वाले गर्मी सुजाक आदि भयानक बीमारियों से सड़ कर मरते हैं, जूते खाते हैं और अकालमृत्यु के ग्रास धनते हैं। क्या इसी बूते पर श्रात्मा को परमात्मा कहते हो ? क्या ऐसी दुर्गति तुम्हारे मत के अनुसार परमात्मा की ही होती है ? भोले लोग श्रात्मा सो परमात्मा तो कहते हैं, मगर उसी को काट कर खा जाते हैं। मला इस प्रकार निराधार गपोड़ा मारने वाले नरक में जाएँगे अथवा अपनी आत्मा को वश में रखने वाले नरक में जाएँगे ९ बुद्धिमानों को यह निर्णय स्वयं कर लेना चाहिए और अपनी आत्मा को दुष्कर्मों से बचाना चाहिए। ऐसा करने से ही सुख की प्राप्ति होगी । ना-निन्दा करके अपना सुधार भी कर सकता है, किन्तु निह्नव कुमत पक्ष में बँध कर अपना सुधार नहीं करता । इसलिए शास्त्र का आदेश है कि चाहे कोई कम गुणवाला हो या अधिक गुणवाला हो, उसका हानि-लाभ तो उसी की आत्मा को होगा; मगर खटपट में पड़ कर अगर सुसाधु कभी को कुसाधु और गुणी को दुर्गुणी मान लिया तो ऐसा मामने वाले की आस्मा मिथ्यात्व का उपार्जन करके काली धारः डूब जाती । इसलिए कदाचित् किसी का दोष भी दिखाई दे जाय तो उसे अनदेखा कर देना और सुने को अनसुना कर देना ही अपने लिए हितकर है। देखिये सूत्रकृतागसूत्र प्रथम श्रुतस्कंध, अध्ययन १३ वाँ, गाथा ५वीं में कहा है- जो क्रोध के वश होकर जगतार्थभाषी होगा अर्थात् काणे को काणा, अंधे को अंभा और हीनाचारों को हीनाचारी आदि जैसा देखेगा वैसा ही कहेगा और उपशान्त हुए क्लेश की उदीरणा करेगा, वह चतुर्गति रूप संसार में बहुत दुःख पाएगा, जैसे अंधा मनुष्य लकड़ी लेकर भी रास्ता चलते अनेक दुःखों से पीड़ित होता है। जब दोषियों के दोषों को प्रकाशित करने में भी इतना पाप बतलाया है, तो फिर जो व्यक्ति अपने आचार्य, उपाध्याय, ज्ञानादि गुणों के दाता गुरुओं के गुणों का लोप और गोप करेगा, उसकी क्या गति होगी ? समवायोगसूत्र की गाथा २४-२५ देखिए । उनमें कहा है- जो मनुष्य शास्त्र, विनय, शिक्षा जादि सिखाने वाले श्राचार्य, उपाध्याय आदि की निन्दा करेगा, उनसे विपरीत चलेगा, उनका सत्कार-सम्मान नहीं करेगा, वह महानोहनीय कर्म का बंध करके सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर पर्यन्त बोधिबीज - सम्यक्त्व को प्राप्त नहीं कर सकेगा । श्रतएव समस्त जीवों के कल्याण की अभिलाषा से सूचना दी जाती है कि इस प्रकार दुःखप्रद इस श्रविनय भाशातना मिश्यास्य से अपनी रमा कहे कर सुली मने का प्रयक्ष करना चाहिए ।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy