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________________ ५६२ ] * जैन-तत्व प्रकाश २४ - अक्रिया मिथ्यात्व अक्रियावादी के समान जो कहता है कि- 'आत्मा, परमात्मा है, इसलिए अक्रिय है । अर्थात् आत्मा को पुण्य-पाप की क्रिया नहीं लगती है। जो लोग, धर्माभिलाषी जनों को पुण्य-पाप के भ्रम में फँसा कर खान-पान, भोग-विलास, ऐश-आराम से वंचित करते हैं और भूख-प्यास, शीत ताप, चर्य आदि का पालन करके आत्मा को दुःख देते हैं, वे सब नरक में जाएँगे । ऐसे मिथ्यामत की स्थापना करने वाले से ज्ञानी जन कहते हैं किवाह रे भाई ! तूने तो परमात्मा को भी नरक में डाल दिया, भंगी, भील, चमार कसाई, नीच जाति वाला ओर नीच कर्म करने वाला बना दिया, क्योंकि तेरे विचार से आत्मा और परमात्मा एक ही है। अच्छा फिर श्रात्मा को पोषने वाले दुखी क्यों दृष्टिगोचर होते हैं ? परलोक की बात जाने दो, प्रवचननिह्नव तो सिर्फ प्रवचन का ही उत्थापक होता है किन्तु निन्दकनिह्नन प्रवचन की, प्रवचन के प्ररूपक केवलज्ञानी की, धर्माचार्य की और चतुर्विध संघ की इन सब की माया-कपट के साथ निन्दा करता है । वह कहता है--मैं जो कहता हूँ वही सच्चा हैं, शास्त्र head मिथ्या हैं। वह गुरु आदि से भी विमुख होकर उद्धततापूर्ण व्यवहार करता है। इस arry as farera ही होता है। श्रीउत्तराध्ययन के ३६ वें अध्ययन में कहा है कि श्रुतज्ञानी, केवलज्ञानी, धर्माचार्य, गुरुदेव तथा चतुर्विध संघ का अवर्णवाद बोलने वाला किल्विष देव होता है और उसकी आज्ञा मानने वाले भगवान् की आज्ञा से बाहर और मिथ्यात्वी होते हैं। वे कितना भी ऊँचा आचार पालें तो भी उनकी अपेक्षा पासत्या अर्थात् शिथिलाचारी लाख दर्जे अच्छा गिना जाता है। कारण यह है कि पासस्था तो कदाचित् किसी श्रंश में चरित्र का ही विरोधक होता है, वह सम्यक्त्व का तो आराधक ही होता है, जिससे उसका आत्मकल्याण शीघ्र हो सकता है, मगर मिथ्यात्वी सम्यक्त्व से भी रहित होता है । ज्ञातासूत्र के दूसरे स्कंध में उल्लेख है कि श्रीपार्श्वनाथ भगवान् की २०६ आर्याएँ पासस्था थी, किंतु सम्यक्त्व शुद्ध होने के कारण वे सभी देवलोक गई और श्रागे महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर मोक्ष जाएँगी। दूसरी बात यह है कि पासस्था की श्रद्धा-प्ररूपणा शुद्ध होती है, किन्तु मोहनीय के उदय से सिर्फ स्पर्शना शुद्ध नहीं कर सकता है। इससे उसकी आत्मा को तो हानि पहुँचती है मगर वह दूसरों को नहीं डुबाता है। मगर निन्दक तो गुरु आदि से अलग होकर अपना अलग ही पंथ स्थापित करता है, अपने साथ अनेकों को भव-सागर में in है । इसके अतिरिक्त वासस्था तो अवसर आने पर निशीथसूत्र के काममानुसार जातो.
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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