SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 604
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५५८ ] *जैन-तत्त्व प्रकाश में, धूप देने में, * स्नान और यज्ञ करने में, सातों कुव्यसनों के सेवन में, स्त्रीसम्भोग में, नृत्य-नाटक आदि देखने में, जो कि सांसारिक काम हैं, उनमें धर्म मानना, उन्हें मोक्ष का कारण मानना मिथ्यात्व है । २० - रूपी को अरूपी श्रद्धना - मिथ्यात्व eyer दि कितने ही अष्टस्पर्शी रूपी (साकार - मूर्तिमान् ) पदार्थ हैं; किन्तु सूक्ष्म होने से और पारदर्शी होने से दृष्टिगोचर नहीं होते हैं । कर्मपुद्गल चौस्पर्शी रूपी पुद्गल हैं । वे भी दृष्टिगोचर नहीं होते हैं । इस कारण उन्हें रूपी कहना मिथ्यात्व है । २१ - अरूपी को रूपी श्रद्धना - मिथ्यात्व धर्मास्तिकाय आदि जो गति आदि में सहायक अरूपी द्रव्य हैं, उन्हें रूपी मानना | सिद्ध भगवान् वर्णहीन, गंधहीन, रसहीन, स्पर्शहीन, आदि रूपी द्रव्य के गुणों से युक्त हैं, उन्हें रूपी मानना, उनमें लाल रंग आदि की स्थापना करना, पहले ईश्वर की अरूपी अवस्था कह कर फिर धर्म अथवा सूखी नमस्कार जल जो बढ़ाऊँ नाथ ! कछ मच्छ पोवो करे, दूध जो चढ़ाऊँ देव ! फूल जो चढ़ाऊँ प्रभो ! भृङ्ग ताही संघ जात, पत्र जो बढ़ाऊँ ईश ! वृक्ष का उजार है । दीप जो पढ़ाऊँ नाथ ! शलभ तेहिं भस्म होत, धूप जो चढ़ाऊँ वह अभि को आहार है । छ की जुठार है । मेवा मिष्टाच तामें मक्खी मुख डार जात, फल जो चढ़ाऊँ सो तो तोता की जुठार है । एती एती वस्तुएँ हैं सो हैं सभी दोषयुक्त, बातें महाराज मेरी सूखी नमस्कार है ।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy