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________________ मित् [ ५५७ सूकता तो कुछ और ही कहने लगते हैं। समझना चाहिए कि किसी दबालु पुरुष ने मरते जीव को उपदेश द्वारा या द्रव्य आदि की सहायता द्वारा बचाया तो उसको अभयदान दिया । अभयदान का श्रेष्ठ फल उसे मिलेगा । शास्त्र में कहा है – 'दाणाण सेङ्कं श्रभयप्ययाणं' अर्थात् सब दानों में अभयदान ही श्रेष्ठ है। सूत्र के अक्षम सुत्तस्कंध के छठे अध्ययन में यह उल्लेख पाया जाता है। बचा हुआ जीव आगे जो पाप करेगा उसका फल करने वाला स्वयं भोगेगा । जूस अन्थ के लोग अपने पंथ के साधुओं के सिवाय दूसरे को दान देने में भी एकान्त पात्र बदलाते हैं और अपवतीजी का पाठ बतला कर भोले भाइयों को दान देने से वंचित करते हैं, किन्तु इसी जगह पूर्वाचार्यो ने उस पाठ का जो खुलासा किया है, उसे नहीं मानते हैं। रायपसेणीसूत्र में वर्णन है कि श्री स्वामीजी का उपदेश सुन कर प्रदेशी राजा ने दानशाला की स्थापना की थी । दशाश्रुतस्कंध में श्रावक को ग्यारहवीं प्रतिमा धारण करके भिक्षोपजीवी होने की विधि बतलाई है। श्रावक को आहार आदि का दान देना अगर एकान्त पाप हो तो क्रौन विवेकवान् श्रावक उसे भिना देगा ! और दूसरों को एकान्त पाप लगाने के लिए पडिमाधारी श्रावक भी कैसे भिक्षा लेवे ? उववाईसूत्र में अब संन्यासी ब्रैक्रिय लब्धि के प्रभाव से सदा १०० घरों में पारणा करता था, ऐसा कथन किया है। इतना स्पष्ट कथन होने पर भी साधु के सिवाय अन्य को दान देने में जो लोग पाप बतलाते हैं उन्हें सम्यक्त्वी किस प्रकार मामा बाय ? इसलिए चेताना है कि ऐसे शास्त्रविरुद्ध उपदेश को सुन कर सन्मार्ग की समय-सार उम्मार्थ- में मत जाना । मिथ्यात्व से अपनी आत्मा को बचाना चाहिए ! १६ उन्मार्ग की सन्मार्ग श्रद्धना विध्याल पृथ्वी आदि षट् जीवनिकाय की जिसमें हिंसा हो उस काम को धर्म मानना भी विध्याता है। जैसेआदि देव को चढ़ाने
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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