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________________ ५५६ ] ® जैन तत्व प्रकाश का प्रसार हो गया। उत्तराध्ययन सूत्र के अठारहवें अध्ययन में जिसकी प्रशंसा की गई है.---'संती मंचिकर जोए' अर्थात शान्तिनाथ भगवान् लोक में शान्ति करने वाले हैं। . (३) बाईसवें तीर्थंकर श्रीअरिष्टनेमि ने बाड़े में बंद किये हुए जीवों को छुड़ाने वाले सारथी को इनाम दिया, जिसका उल्लेख उत्तराच्चयन सूत्र के २२ वें अध्ययन में है-साणुक्कोसे जिए दिऊ ।' अर्थात् अनुकम्पा करके जीवों का हित किया। (४) तेईसवें तीर्थंकर श्रीपार्श्वनाथ ने लक्कड़ में जलते नाग-नागनी को बचाया जिसका उल्लेख कल्पसूत्र में मिलता है। (५) श्रीमहावीर स्वामी ने साधु अवस्था में गोपालक को बेजोलेल्या से जलते बचाया। ..(६) तीर्थ हर भगवान जहाँ बिचाते हैं, जहाँ ला कोर गौ-सौ लोक पर्यन्त सेना, काल तथा मनुष्पकत उपसा नाहीं झेवा और मोदि पहले शो उममा हो रहा हो तो मिट जाता है। मामलामांप्रमत्र में इसे वो कर मा अतिशय बतलाया है। इस प्रकार स्वयं तीर्थङ्करों ने जीवों की रक्षा की तो क्या उनको भी अठारह पाप लमे होंगे ? किन्तु जिस प्रकार ये लोग भगवान् महावीर के अनुयायी बनते हुए भी भगवान महावीर को ही चूका बतलाते हैं, उसी प्रकार इन दूसरे तीर्थंकरों पर भी दोषारोपण करने में क्यों संकोच करेंगे। इसलिए इनसे पूछना चाहिए कि अगर कोई जीव नरक में जाता तो वहाँ उसे पाप करने का विशेष प्रसंग प्राप्त नहीं होता । उसे आपने उपदेश देकर साधु का आपक बना लिया। हमारी प्राप्त विवि हुए धर्म के प्रभाव के क्षेव होकर देवामनाने के साथ भी विलास करिमा और दूसरे की अनेक पाप करेगा। तो आपकी श्रद्धा के अनुसार उसके पासाचल्यापार आपको बगना जातिय । सो सरहे हैं...कमा बड़ी भोसड़ा। इस
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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