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________________ * मिथ्यात्व [५५५ को मूर्ति मानने में तो कोई हानि नहीं, मगर भगवान् सानना मिथ्यात्व है। इसी प्रकार यह जगत् तो गड़ और चेतन-दो तत्वों से युक्त है, परन्तु कई लोग जगत् के समस्त पदार्थों को चेतनमय या ब्रह्मस्वरूप ही स्वीकार करते हैं। उनके मत से जड़ अर्थात् अजीव भी जीव बन जाता है। इस प्रकार की श्रद्धा भी मिथ्यात्व ही है। (१८) सन्मार्ग को उन्मार्ग श्रद्धना-मिथ्यात्व ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, दान, शील सन्तोष सरलता, दया, सत्य आदि जो मुक्ति के मार्ग हैं, उन्हें कर्मबंध का, संसार में परिभ्रमण का मार्ग कहना मिथ्यात्व है । दया और दान को डूबने का खाता बताना मिथ्यात्व है । कितनेक लोग कहते हैं कि जीव को मारने से एक हिंसा का पाप लगता है, मगर मरते हुए जीव को बचाने में अठारह पाप लगते हैं। क्योंकि मरता हुआ जीव यदि बच कर जीवित रह जायगा तो वह जितने पाप अपने जीवन में करेगा, उन समस्त पापों का भाजन बचाने वाला होगा। इस प्रकार की कुयुक्तियाँ लगाकर वे लोग भोले जीवों के हृदय में से दया निकालकर उन्हें कसाई के समान निर्दय बना देते हैं। फिर उनके सामने कोई जीव आग में पड़ कर जलता हो, पानी में डूब कर मरता हो तो वह बैठे-बैठे देखा करते हैं, किन्तु उसे बचाने का प्रयत्न नहीं करते हैं और यदि कोई बचाता हो तो उसे वह उलटा पापी बतलाते हैं । अफसोस ! ऐसा निर्दय मत भी जैनधर्म में चला है ! शास्त्रों में जीवरक्षा और दान के अनेक प्रमाण मौजूद हैं। उनमें से कुछ लीजिए: (१) श्रीऋषभदेव भगवान् ने कल्पवृक्षों के नष्ट होने से जीवों को दुखी देखकर, उनकी रक्षा के लिए तीन प्रकार के कर्मों का-असि, मसि और कृषि का प्रचार किया। (२) शान्तिनाथ भगवान् जब अपनी माता के गर्भ में थे तब उनके पुण्यप्रभाव से देश में फैला हुआ महामारी का रोग मिट गया और सर्वत्र शान्ति
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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