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________________ ५५४ ] * जैन- तस्व प्रकाश * किया होगा ? जैसे तुम्हें फल फूल आदि प्रिय लगते हैं तैसे ही सिंह, व्याघ्र आदि को मनुष्य का मांस बहुत प्रिय लगता है । तुम भी मर कर एक दिन भस्मीभूत हो जाओगे तो क्या सिंह का भक्ष्य बनना पसंद करते हो ? जब सिंह आदि सामने आ जाता है तो बाप दादा को पुकार कर जान क्यों छिपाते हो ! सिंह तो खैर दूर रहा, खटमल का आहार तो मनुष्य का रक्त ही है, उसके काटने से मनुष्य की जान तो जाती नहीं है, तथापि उसे तुरंत मार डालते हो ! बन्धु ! जैसे तुम्हें अपनी जान प्यारी है, तैसे ही उनकी जान उन्हें प्यारी है। फल और न सजीव पदार्थ हैं । अपने-अपने कर्म के अनुसार योनि को प्राप्त हुए हैं। मनुष्य उनका भोग करता है और कदाचित् ऐसा किये बिना गृहस्थ का काम नहीं चल सकता । फिर भी जीव को तो जीव ही मानना चाहिए और उनके उपभोग के पाप को पाप मानना चाहिए । ऐसा मानने से इस मिथ्यात्व से बचाव हो जाता है । (१७) अजीव को जीव श्रद्धना - मिथ्यात्व 1 सूखे काष्ठ की, निर्जीव पाषाण की अथवा पीतल आदि धातुओं की जीव की आकृति (मूर्ति) बनाना और उसे साक्षात् तद्रूप मानना भी मिथ्यात्व है । क्योंकि जिसकी मूर्ति बनाई गई है, प्रथम तो उसे किसी ने देखा नहीं है । और यदि देखा भी हो या शास्त्र के आधार पर मूर्ति बनाई गई हो तो भी मूर्ति साक्षात् वही - जिसकी मूर्ति बनाई है - कैसे हो सकती है ? मूर्ति में असली व्यक्ति के समस्त गुण नहीं हो सकते । तीर्थकरों के १००८ उत्तम लक्षण और चौतीस अतिशय थे । उनकी मूर्ति में इन लक्षणों अथवा तियों का पता नहीं लगता । तीर्थंकरों के आसपास १००-१०० कोसों तक किसी प्रकार का रोग आदि उपद्रव नहीं होता था, मगर मूर्ति को तो यवनों ने भंग किया, फिर भी कुछ नहीं हुआ । रामचन्द्रजी और कृष्णजी का वो नाम सुनते ही बड़े-बड़े दैत्यों की हिम्मत पस्त हो जाती थी मगर उनकी मूर्ति पर से चोर आभूषण उतार कर ले जाते हैं। इससे तथा सहज विवेक से यह स्पष्ट है कि उनकी मूर्ति को वही नहीं माना जा सकता । अतएव मूर्ति
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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