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________________ ५५२ ] * जैन-तस्य प्रकाश ॐ का धारक हो और किसी में कम गुण पाये जाएँ, फिर भी वह साधु ही कहलाएगा। सब साधुनों के गुण एक समान नहीं हो सकते, इसी कारण भगवान् ने पाँच प्रकार के निग्रन्थ और पाँच प्रकार के चारित्रवान् साधु कहे है। और उनका प्राचार पृथक्-पृथक् बतलाया है। कितनेक लोग अपनी सम्प्रदाय या पंथ की एकता की प्रशंसा करते हैं और दूसरों के पंथ की अनेकता का प्रदर्शन करते हैं, और इस आधार पर अपनी तारीफ करते हैं। उन्हें समझना चाहिए कि भगवान् महावीर स्वामी के ग्यारह गणधरों के नौ गच्छ थे, तो इस अनेकता के कारण क्या वे साधु नहीं थे ? गच्छ पहले भी अलग-अलग थे और आज भी हैं, तभी तो छेदशास्त्र में कहा है कि छह महीना से पहले गच्छ-सम्प्रदाय बदलने से प्रायश्चित्त आता है। इससे समझना चाहिए कि अनेक गच्छ तो अनादि काल से चले आते हैं। जो लोग एकता की तारीफ करते हैं, उन्हें सोचना चाहिए कि एकता क्या एकान्त रूप से सभी जगह अच्छी ही होती है ? एकता तो चोरों में भी बहुत होती है। अगर वे एकता न रक्खें तो पकड़े जाएँ और दंड के भागी हों। इस प्रकार जो लोग अपने अनाचार को छिपाने के लिए एकता रखते हैं वे कदापि प्रशंसनीय नहीं होते। इस कथन को ध्यान में रखकर जिनके मूल गुणों का भंग न हो, जो अपने गुरु की आज्ञा में चलते हों, जिनका व्यवहार शुद्ध हो, उन सब सुसाधुओं में समभाव धारण करके अपनी प्रात्मा को इस मिथ्यात्व से बचाना चाहिए। १५-असाधु को साधु मानना-मिथ्यात्व पूर्वोक्त साधु के गुणों से रहित, गृहस्थ के सदृश, या गुण विना कोरे भेषधारक, दस प्रकार के यतिधर्म से रहित, पापों का स्वयं सेवन करने वाले, सेवन कराने वाले और पापों का सेवन करने वालों का अनुमोदन करने वाले, प्रमाण से अधिक तथा लाल-पीले भादि वस्त्र धारण करने वाले, धातुके
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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