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________________ #मिथ्यात्व* [५५१ - फिर भी चतुर व्यापारी यह ध्यान रखता है कि जितने कम खर्च में काम चलता हो, चलाना चाहिए । आखिर खर्च और आमदनी का हिसाब लगाने पर खचे से लाम जितना अधिक होता है, उतनी ही प्रसन्नता होती है। इसी प्रकार धर्मात्मा, धर्मवृद्धि के काम करने में गमनक्रिया आदि आरंभ रूप जो खर्च होता है, उसकी खुशी नहीं मानते हैं बल्कि उसमें पाप ही मानते हैं, किन्तु इस आरंभ के निमित्त से आत्मगुणों की वृद्धि, धर्मोन्नति, स्व-पर आत्मा का उपकार रूप जो लाभ होता है, उसमें धर्म मानते हैं। ऐसी शुद्ध श्रद्धा रखने से इस मिथ्यात्व से बचा जा सकता है। १४. साधु को असाघु मानना-मिथ्यात्व पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति, पाँचों इन्द्रियों का निग्रह, चारों कषायों की उपशान्ति, ज्ञान, ध्यान, त्याग, वैराग्य, आदि जो गुण शास्त्र में साधु के बतलाये हैं, उन गुणों से युक्त साधुओं को, मिथ्यात्व के उदय से, कुगुरुओं के भरमाने से, मतपक्ष में फंसकर मूढ़ बने हुए जीव असाधु मानते हैं । उन्हें भगवान् के चोर कहते हैं । ढीले-पासत्थे या मेलेकुचैले आदि अपशब्दों से उनका उपहास करते हैं; निन्दा करते हैं । गच्छ या पंथ या सम्प्रदाय का पक्ष धारण करके, अपने मत को ही सच्चा मानते हुए, अन्य की निन्दा करते हैं। उन्हें वन्दना-नमस्कार करने में तथा आहारपानी देने में सम्यक्त्व का नाश समझते हैं । इस प्रकार पड़े ज्ञानी, ध्यानी, तपस्वी, जपी, संयमी आदि अनेक गुणों से युक्त चारों तीर्थो के गुणों का आच्छादन करके मिथ्यात्व का उपार्जन कर लेते हैं। ऐसे लोगों को सोचना चाहिए कि भगवान महावीर स्वामी के समय में भी १४००० साधुओं में से सभी समान गुणों धारक नहीं थे। अगर ऐसे होते तो सभी केवलज्ञानी हो जाते । मगर केवली तो ७०० ही हुए हैं। फिर भी भगवान् ने साधु तो उन सभी को कहा है। कोई हीरा एक रुपये का होता है और कोई करोड़ का होता है। फिर भी दोनों हीस कहलाते हैं। कम कीमती होने से हीरा काच नहीं हो जाता है। इसी प्रकार साधु भले ही कोई अधिक गुणों
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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