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________________ ५५० ® जैन-तत्व प्रकाश ® अप्काय, अग्निकाय, वायुकाय), इन सब प्रकार के जीवों की हिंसा नहीं करनी चाहिए, इन पर आज्ञा नहीं चलानी चाहिए, इनका घात नहीं करना चाहिए, इन्हें परिताप नहीं पहुँचाना चाहिए, उपद्रव नहीं करना चाहिए, दुःख नहीं देना चाहिए अर्थात् सब जीवों की रक्षा करना चाहिए और दया पालना चाहिए। यही धर्म शुद्ध है, सनातन है, शाश्वत है; यह धर्म सब जीवों के खेदज्ञ (दुःख को जानने वाले) जिनेश्वरों ने फरमाया है। यह धर्म, धर्म के लिए उद्यत, अनुद्यत, मुनियों के लिए, गहस्थों के लिए, विरक्तों के लिए, भोगियों के लिए, त्यागियों के लिए सभी के लिए कहा है। यह धर्म यथातथ्य है-सत्य है और यह जिनप्रवचन में ही वर्णित है। __ अहिंसाधर्म ऐसा परम हितकारी और सदा आचरणीय है। इसे मिथ्यात्वमोहनीय के उदय से, कुगुरुओं के उपदेश से, भ्रम में पड़ कर अधर्म कहना, जीवों की रक्षा करने में, दया पालने में, मरते हुए जीवों को बचाने में अठारह पाप बतलाना, खोटे हेतु और दृष्टान्त देकर अन्तःकरण के प्रधान सद्गुण भनुकम्पा को कम करना मिथ्यास्व समझना चाहिए । १३-अधर्म को धर्म मानना-मिथ्यात्व पूर्वोक्त धर्म के लक्षण से जो विपरीत है, वह अधर्म है । उसे धर्म समझना मिथ्यात्व है । अर्थात् जिससे प्राणी, भूत, जीक और सत्व की हिंसा हो, ऐसे पूजा, यज्ञ, होम, आदि में धर्म मानना मिथ्यात्व है । ___जहाँ योगों की प्रवृत्ति होती है वहाँ आश्रव अवश्य होता है और योगों की प्रवृत्ति के बिना धर्माराधन होना भी कठिन है। ऐसी स्थिति में अधर्म को मानने रूप मिथ्यात्व से आत्मा का बचाव किस प्रकार हो सकता है ? यह बात विचारणीय है। किन्तु शुद्ध श्रद्धावान् पुरुष व्यापारियों की दृष्टि रखते हैं। जैसे वणिक खर्च करने में प्रसन्न नहीं होता है, ममर खर्च किये विना व्यापार भी नहीं होता है और व्यापार किये विना कमाई होना संभव नहीं है। इस कारण कमाई करने के लिए खर्च करने की आवश्यकता होती है।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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