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________________ ® मिथ्यात्व [५४६ साध्वी अपने ज्ञान की और श्रावक-श्राविका अपने थन की सफलता समझते हैं; किन्तु उसका उपयोग मिथ्यात्व की पुष्टि में ही हो रहा है, जिसका उन्हें मान ही नहीं है। इस प्रकार सब जैन एक महावीर के मत के अनुयायी हो कर भी परस्पर एक दूसरे को मिथ्यात्वी ठहरा रहे हैं । यह स्थिति देखकर सखेद आश्चर्य होता है ! मानो इस हुंडावसर्पिणी के पाँचवें काल ने जैनियों पर भी अपना साम्राज्य पूर्ण रूप से जमा लिया है । ऐसे विकट प्रसंग पर सम्यग्दृष्टियों को बड़ी कठिनाई से प्राप्त किया हुआ समकित रूप रन सँभाल रखना कठिन हो रहा है। तथापि मात्मा के हित के इच्छुक सम्यग्दृष्टियों को चाहिए कि वे सब झगड़ों से अपनी आत्मा को अलग रखते हुए अपनी मात्मसाधना में ही निमम रहें। १२-धर्म को अधर्म श्रद्धना-मिथ्यात्व श्रीजिनेश्वरप्रणीत आचारांगरत्र के प्रथम श्रुतस्कंध के चौथे अध्ययन के प्रथम उद्देशक में धर्म का स्वरूप इस प्रकार कहा है: से बेमि–जे य अतीता, जे य पढप्पमा जे य भागमिस्सा अरिहंतो भगवंतो, ते सव्वे एवमाइखंति, एवं भासंति, एवं पएखवंति, एवं परूवेंति-सव्वे पाणा, सब्वे भूया, सव्वे जीवा, सव्वे सचा न हन्तव्वा, न अजवेयव्वा, न परिषातव्वा, न परितावेयव्वा, न उद्दवेयव्वा, एस धम्मे सुद्धे णितिए, सासए, समेच्च लोयं खेयहिं पवेतितेतंजहा-उडिएसु वा, अणुद्धिएसुवा, उवरयदंडेसु वा, अणुवरयदंडेसुवा, सोवाहिए वा, अण्णोवाहिएसु वा संजोगएस वा, असंजोगएसु वा तचं चेयं, तहा चेयं, मस्सिं चेयं पवुच्चइ । श्रीसुधर्मा स्वामी कहते हैं-हे जम्बू ! भूतकालीन तीर्थकरों का वर्तमान कालीन तीर्थङ्करों का तथा भविष्यकाल में होने वाले तीर्थकरों का एक हीसमान ही कथन है, सब का संशयरहित कथन है, सबने द्वादश प्रकार की परिषद् में प्ररूपण किया है, प्रकट रूप में उपदेश दिया है कि किसी भी प्रागी (दीन्द्रिप मादि), भूत (वनस्पति), बीर (पंचेन्द्रिय) और सत्व (पृथ्वीकाय,
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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