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________________ * मिथ्यात्व * प्रतिपक्षी-दुःख होना तो कर्माधीन है। पूर्वपक्षी-यह कथन तो ठग-वैद्य के समान हुआ । रोगी को आराम हुआ तो मेरी औषधि से, और यदि रोग बढ़ गया या रोगी मर गया तो अपने कर्मों से ! अगर कर्मों से ही सुख-दुःख होता है तो फिर विष्णु को रक्षक क्यों मानते हैं ? प्रतिपक्षी-विष्णु भगवान् परम भक्तवत्सल हैं। पूर्वपक्षी-अगर विष्णु परम भक्तवत्सल हैं तो फिर सोमेश्वर महादेव का देवालय महमूद गजनी ने तोड़ा तब उसकी रक्षा क्यों नहीं की ? इसके अतिरिक्त और भी बहुत स्थानों पर म्लेच्छ लोग भक्तों को सताते रहते हैं, विष्णु उनकी रक्षा क्यों नहीं करते ? अगर कहो कि शक्ति नहीं है तो क्या विष्णु, म्लेच्छों से भी हीन शक्ति वाले हैं ? अगर कहो कि विष्णु को खबर नहीं लगती तो उन्हें सर्वज्ञ, सर्वअन्तर्यामी क्यों कहते हो ? अगर कहो कि जानते तो थे, मगर जान-बूझ कर रक्षा नहीं की तो विष्णु भक्तवत्सल कैसे हुए ? इत्यादि विचार करने से विष्णु जगत् का पालन करते हैं यह कथन भी प्रमाणसंगत सिद्ध नहीं होता। अब जो महेश को (शंकर को) सृष्टि का संहारकर्ता मानते हो तो महेश सिर्फ प्रलय काल में ही संहारकर्ता है या सदैव संहार करता रहता है ? और वह अपने हाथ से ही संहार करता है या दूसरों से संहार करवाता है ? अगर अपने हाथ से सदैव संहारकर्ता कहोगे तो सृष्टि में एक-एक क्षण में अनन्त जीव भर रहे हैं, उन सब को अकेला किस प्रकार मार सकता है ? अगर दूसरे के हाथ से संहारकर्ता कहते हो तो उसका नाम बतलाइए ! यदि आपकी मान्यता यह है कि महेश्वर की इच्छा मात्र से संहार हो जाता है, तो क्या महेश की सदैव यही इच्छा बनी रहती है कि 'मरो-मरो' १ ऐसी इच्छा तो दुष्टों की होती है। अगर आप यह कहते हैं कि सिर्फ प्रलयकाल में ही महेश संहार करता है तो ऐसे क्रोध का उद्भव एकदम क्यों हुआ कि बेचारे समस्त जगत् के जीव मार डाले ? एक जीव को मारने वाला भी हिंसक कहलाता है तो फिर सारी सृष्टि के जीवों के संहार करने वाले को क्या कहना चाहिए?
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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