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________________ ५३० ] जैन-तत्त्व प्रकाश* भगवान् की लीला के विषय में यह पूछना है कि वह लीला प्रभु की इच्छा से हुई या विना इच्छा ही हो गई ? अगर इच्छा से लीला हुई, ऐमा कहते हो तो स्त्रीसेवन की इच्छा आपके भगवान् का कामगुण है और यह गुण रजोगुण में आता है । युद्ध करने की इच्छा क्रोध में शामिल है और क्रोध तमोगुण में आता है। इससे स्पष्ट जान पड़ता है कि देव माया के अधीन ही है। अगर आपका कहना यह हो कि भगवान् की लीला भगवान् की इच्छा के विना ही हो जाती है तो क्या देव परवश हैं ? यह बात अँचती नहीं कि देव महासामर्थ्यशाली होते हुए भी किस प्रकार पराधीन हो गये ? जब देव दूसरे के अधीन नहीं हैं तो यही मानना चाहिए कि उन्होंने जो लीला की है, वह माया के अधीन होकर ही की है। आपके शास्त्रों से भी इसी बात का समर्थन होता है। ब्रह्माजी अप्सरा का रूप देखकर, चलित होकर,* साढ़े तीन कोटि तप को बिगाड़ कर, पाँच मह-धारी बने । उनका पाँचवाँ गर्दभ-मुख महेश ने छेदन किया । विष्णु ने पृथक-पृथक् दस अवतार धारण किये + क्रोधित होकर दैत्यों का संहार किया। कृष्णावतार में वस्त्रहरण * जब ब्रह्म ऋषि का साढ़े तीन कोटि तप समाप्त हुआ तो इन्द्र को चिन्ता हुई कि अब यह ब्रह्मा चार कोटि तप पूर्ण होते ही मेरा अधिकार छीन लेगा। इन्द्र की चिन्ता का कारण जान कर तिलोत्तमा अप्सरा ब्रह्म ऋषि के पास आई और पीछे खड़ी होकर नाच-गान करने लगी। अन्य ऋषियों की शर्म के मारे ब्रह्मा मुंह फिरा कर देख नहीं सके। तब एक कोटि तप का फल रख कर पीछे मह होने की उन्होंने इच्छा की । तत्काल पीछे को मुख हो गया । अप्सरा तुरंत दाहिनी तरफ जाकर नाच-गान करने लगी। ऋषि ने एक कोटि तप रखकर दाहिनी तरफ मुख बना लिया । तब अप्सरा बाई ताफ नृत्य करने लगी। तब एक कोटि तप रख कर बाई तरफ मुख बना लिया। अप्सरा ऊपर की तरफ मुख करके नृत्य करने लगी। तब बाकी बचे हुए श्राधा कोटि तप को रख कर ऊपर मुंह बनाने की इच्छा की। इच्छा होते ही गधे का मुंह बन गया । इस प्रकार साढ़े तीन कोटि तप का हरण करके अप्सरा चली गई । ब्रह्माजी का गर्दभ का मुख देख-देख कर तपस्वियों की स्त्रियाँ डरने लगी। तब तपस्वियों के कहने से महादेवजी ने ब्रह्मा के उस गर्दभमुख का छेदन किया और वे चत. मुख ही रह गये, ऐसा पुराण का कथन है। +दस अवतारों के नामः- . मत्स्यः कूमों वराहश्च नरसिंहोऽथ वामनः। रामो रामश्च कृष्णश्च, बुद्ध: कल्की च ते दश ।।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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