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________________ जैन-तत्त्व प्रकाश ५२६ ] उनकी सेवा, भक्ति, पूजा, श्लाघा आदि करना । (३) धर्मगत अन्य मत की संध्या, स्नान, होम, जप श्रादि क्रियाओं को मोक्ष प्राप्ति की इच्छा से अंगीकार करना । जो देव और जो गुरु स्वयं मोक्ष नहीं पा सके हैं, वे दूसरों का मोक्षं कैसे दे सकेंगे ? अतएव मिथ्या शास्त्रों में ऐसे देवों की महिमा लिखी देखसुन कर धर्मशील आत्महितैषी पुरुषों को मूढ़ नहीं होना चाहिए । ६ - जिनवाणी से न्यून प्ररूपणा - मिथ्यात्व 1 कोई-कोई मानते हैं कि आत्मा तिल या सरसों के बराबर है । कोई अंगूठा के बराबर कहते हैं । तिष्यगुप्त आचार्य ने आत्मा को एक प्रदेश मात्र बतलाया है । यह सब प्ररूपणा न्यून (श्री) प्ररूपणा है | अपने विचार से मेल न खाने वाले शास्त्र - बचन को उड़ा देना, पलट देना, या उसका मनमीना अर्थ करना, यह सब भी इसी मिथ्यात्व में शामिल है । १० - जिनवाणी से अधिक प्ररूपणा - मिथ्यात्व श्रीवीतराग भगवान् द्वारा प्रणीत शास्त्र से अधिक प्ररूपण करना भी मिथ्यात्व है । जैसे - कोई-कोई आत्मा को सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्यापक मानते हैं । इसी प्रकार साधु के समस्त धर्मोपकरणों को परिग्रह कहना, श्री भगवान् महावीर के ७०० केवल शिष्य शास्त्र में कहे हैं, उनसे ज्यादा कहना, इस प्रकार केवली के बचन से अधिक प्ररूपणा करना भी मिथ्यात्व है । ११ - जिनवाणी से विपरीत प्ररूपणा - मिथ्यात्व केवलज्ञानी वीतराग "भगवान् द्वारा प्रणीत शस्त्र से विपरीत प्ररूपणा करना विपरीत मिथ्यात्व हैं। जैसे 'श्वेताम्बर, दिगम्बर श्रादि साँधु कहला
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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