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________________ ®मिथ्यात्व [ ५२७ कर रक्ताम्बर पीताम्बर, कृष्णाम्बर आदि धारण करना । मुँहपत्ती आदि उपकरणों को विपरीत प्रकार से रखना आदि । ___ कुछ लोगों की मान्यता है कि सृष्टि ब्रह्मा ने बनाई है।* विष्णु उसका पालन करते हैं और महेश (शंकर) उसका संहार करते हैं । ब्रह्मा की इच्छा हुई–'एकोऽहं बहु स्याम' अर्थात् मै एक हूँ, अनेक बन जाऊँ । पूर्वपक्षी-जब पहली अवस्था में किसी प्रकार का दुःख होता है, तभी दूसरी अवस्था की धारण करने इच्छा होती है। इस नियम के अनुसार ब्रह्मा जब अकेला था तो उसे क्या दुःख था जिससे उसने अनेक रूप धारण करने की इच्छा की ? प्रतिपक्षी-दुःख तो उसे कुछ नहीं था, मगर परमब्रह्म ने कौतुक किया । पूर्वपक्षी- जिसे विशेष सुख की अभिलाषा होती है, वही कौतुक करता है । तो क्या परमब्रह्म को पहले कम सुख था ? और फिर अनेक रूप हो जाने पर अधिक सुख हुआ ? अगर परमब्रह्म पहले से ही पूर्ण सुखी था * सप्टि की उत्पत्ति के सम्बन्ध मे वेदों, उपनिषदों और पुराणों में नाना मन्तव्य देखे जाते है। उनमें से कुछ यह हैं:-(१) कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीय उपनिषद् की ब्रह्मवल्ली में कहा है-परमात्मा से आकाश, श्राकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से पानी, पानी से पृथी, पृथी से औषधि, औषधि से अन्न, अन्न से वीर्य और वीर्य से पुरुष उत्पन्न हुश्रा। इस प्रकार सृष्टि उत्पन्न हुई। (२) ऋग्वेद १-१४४-५ में कहा है कि 'एकं सद् विप्रा बहता वदन्ति । एक सत सदेव स्थिर रहता है, मगर उसे लोग अनेक नामों से पुकारते है । (३) इसके विरुद्ध ऋग्वेद १०-७२-७ में कहा है-'देवाना पूर्वे युगेऽसतःसद् जायते ।' अर्थात् देवों से भी पहले असत् अर्थात् अव्यक्त से सत् अर्थात् व्यक्त सृष्टि उत्पन्न हुई। (४) इसके अतिरिक्त किसी दृश्य तत्त्व से सृष्टि के उत्पन्न होने के विषय में ऋग्वेद में ही भिन्न-भिन्न अनेक वर्णन है । जैसे-पृथ्वी के आरम्भ मे मूल हिरण्यगर्भ (ब्रह्म) था । अमृत और मृत्यु-दोनों उसकी छाया है। भागे चल कर उसी से सम्पूर्ण साष्टे उत्पन्न हुई है। (५) ऋग्वेद १०-१२१-१-२ में कहा है-सर्वप्रथम विराट पुरुष था और उसी से यज्ञ द्वारा है। (६) ऋग्वेद १०-80 में कहा है कि पहलेपानी था और उससे प्रजापति उत्पन्न हुआ। (७ ऋग्वेद १०-७२-६ में तथा १०-८२-६ में कहा है-ऋतु और सत्य पहले उत्पन्न हए, फिर अन्धकार (रात्रि), फिर समुद्र (पानी), और फिर संवत्सर आदि उत्पन हुए । (८) ऋग्वेद ? ०-७२-१ में कहा है-सृष्टि के प्रारम्भ में वह अकेला ही था। इस प्रकार पूर्वापर विरोधी अनेक विचार मिलते हैं, जो यह सिद्ध करते हैं कि यह विचार असर्घज्ञ के हैं। सर्वज्ञ का मन पूर्वापर विरोधी नही हो सकता। समस्त
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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