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________________ 8 मिथ्यात्व [५२५ जैन साधु का नाम और वेष धारण करने वाले किन्तु साधुपन के गुणों से रहित, भ्रष्ट साधु के पाँच दोषों से युक्त, पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति से रहित, छह काय के जीवों की घात करने वाले साधु को धर्मगुरु मानना लोकोत्तर गुरुगत मिथ्यात्व है। जैनधर्म भव-भव में लोकोत्तर कल्याणकारी है, निरवद्य है । इस धर्म का सेवन करने से निराबाध और अक्षय मोक्ष-सुख की प्राप्ति होती है । फिर भी इस सुख की उपेक्षा करके इस लोक संबंधी धन ,पुत्र, स्त्री आदि संबंधी सुख प्राप्त करने के लिए धर्म का आचरण करना लोकोत्तर धर्मगत मिथ्यात्व है। जैसे-पुत्र प्राप्त करने की इच्छा से कनकावली तप करना, करोड़पति बनने की अभिलाषा से सामायिक करना, व्यापार में मुनाफा करने की भावना से पक्खी का उपवास करना, दुश्मन का नुकसान करने के लिए अष्टमी का व्रत रखना आदि । इस प्रकार की रूढ़ि जहाँ कहीं भी प्रचलित हो, उसे दूर करने का प्रयत्न अवश्य करना चाहिए । अनन्त जन्म-मरण के फेरा मिटा देने वाली सत्ता धर्म की है । इस महान् फल के बदले इस जगत् के चणिक सुख, अशुचिमय सुख, जिनका दूसरे क्षण के लिए भी भरोसा नहीं किया जा सकता, ऐसे सुख प्राप्त करने के लिए धर्म का आचरण करना हीरा देकर पत्थर लेने के समान है। वणिकपुत्र एक रुपये का माल पन्द्रह भाने में भी नहीं बेचता । कदाचित् बेचता भी है तो वह मूर्ख गिना जाता है। ऐसी स्थिति में अनन्त सुख रूप फल देने वाले धर्म का आचरण क्षणिक सुख के लिए करने वाला बुद्धिमान् कैसे समझा जा सकता है ? इस प्रकार विचार कर लोकोत्तर धर्मगत मिथ्यात्व से आत्मा को बचाना चाहिए। ८-कुप्रावचनिक मिथ्यात्व इस मिथ्यात्व के भी तीन भेद हैं- (१) देवगत-हरि, हर, ब्रह्मा आदि अन्य मत के देवों को मोक्ष प्राप्त करने के लिए मानना-पूजना । (२) गुरुगतबाबा, जोगी आदि कुगुरुओं को सबा गुरु मान कर मोक्ष-प्राप्ति के लिए
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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