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________________ २४ ] जैन-तत्त्व प्रकाश 1 वान ही हैं । निर्विघ्न रूप से मोक्ष रूपी नगर में पहुँचाने वाले सार्थवाह भी भगवान् ही हैं। - एक बड़ा सार्थवाह था । वह सभी मार्गों का ज्ञाता था । बहुत से परिवार के साथ वह शिवपुर जा रहा था । रास्ते में उसने अपने साथियों से कहा - ' - 'देखो, आगे मरुस्थल है। वहाँ जल नहीं है, वृक्ष नहीं है । उस मरुस्थल को पार करते समय कई प्रकार के कष्ट झेलने पड़ते हैं । उन कष्टों को समभाव से सहन करते हुए मरुस्थल को पार करना । उस मरुस्थल की वी में एक बाग है । वह बहुत मनोरम दिखाई देता है, किन्तु उसे देखने मात्र से महान् दुःख होता है । उसमें जो चला जाता है, उसे तो प्राणों से ही हाथ धोना पड़ते हैं । अतएव उस ओर दृष्टि भी न करते हुए, सीधे रास्ते से ही अटवी को पार कर लेना । उस अटवी को पार कर लेने के पश्चात् सब सुखदाता उपवन प्राप्त होगा ।' सार्थवाह का यह उपदेश जिन्होंने नहीं माना वह क्षुधा तृषा से व्याकुल होकर उस बगीचे में गये । वहाँ किंपाक वृक्ष के अत्यन्त मधुर प्रतीत होने वाले फलों को भक्षण करते ही घोर वेदना से व्याकुल हो गये, मानो कोट्यात बिच्छू ने डँस लिया हो ! अन्त में अर्राट मचाते हुए अकाल-मृत्यु को प्राप्त हुए। जिन लोगों ने सार्थवाह की आज्ञा मानी वे अटवी को पार करके, आगे के उपवन में पहुँचे और परम सुखी बने । । भावार्थ --- यहाँ सार्थवाह के स्थान पर अरिहन्त भगवान् समझना चाहिए । सार्थवाह के परिवार के स्थान पर चारों सङ्घों को समझना चाहिए । युवावस्थावी है । बगीचा स्त्री है। जिन्होंने अरिहन्त की आज्ञा को भङ्ग किया, वे दुःखी हुए और जिन्होंने पालन किया वे मोक्ष रूपी उपवन को प्राप्त कर सुखी हुए । 1 अप्प डिहयवर - गाण-दंसणधराणं-दूसरे से घात को प्राप्त न होने वाले केवलज्ञान और केवलदर्शन के धारक | वियट्टछउमाणं — छद्मस्थ-सराग अवस्था से निवृत्त । तात्पर्य यह है कि भगवान् की आत्मा के प्रदेश कर्मों के आच्छादन से मुक्त हो गये हैं ।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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