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________________ १४२ * जैन-तत्त्व प्रकाश सलग्न का मन्तवमान्मक पदार्थ को ग्रहण करता है और नय उनमें से नयमो प्रकार का है-सन्नय और दुर्नय । जो नय या दृष्टिकोण एक धर्म को ग्रह कर है किन्तु दूसरे दृष्टिकोणों से पाये जाने वाले अन्य धर्मों का लिये नहीं करता वह सन्नय है । इसके विपरीत जो नय एक धर्म का विधान करता है किन्तु नाथ ही दूसरे धर्मों का निषेध भी करता है वह दुर्नय यार है। पवनय के दो भेद हैं-(१) व्यवहारनय और (२) निश्चयन बिके द्वारा वस्तु का बाह्य स्वरूप जाना जाय तथा जो अपबाद मामलागू हो सह व्यवहारनय कहलाता है। जिसके द्वारा वस्तु का मूलभूत अ-लार स्वरूप जाना जाय अथवा जो उत्सर्ग मार्ग में लागू हो वह निधवन करलाता है। व्यवहारनय वस्तु के औपाधिक स्वरूप का निरूपण करता है और निश्चयनय शुद्ध स्वरूप का वर्णन करता है। पों तो जितने भी वचन के प्रकार हैं, उतने ही नय के भेद भी हैं। पदार्थ में अनन्त धमे हैं और एक-एक धर्म को ग्रहण करने वाला अभिप्राय नय कहलाता है। इस अपेक्षा से नय के भेद भी अनन्त हैं। पर मध्यम रूप से नय के सात भेद किये गये हैं। वे इस प्रकार हैं:-१ नैगमनय २ विचारों का समन्वय करने वाला शास्त्र नयवाद कहलाता है। उदाहरणार्थ---श्रात्मा के विषय में ही परस्पर विरोधी मन्तब्य मिलते हैं। कहीं 'श्रात्मा एक है। ऐसा कथन है तो दूसरी जगह 'आत्मा नेक है' ऐसा कथन मिलता है। आत्मा की यह एकता और अनेकता श्रापस में विरोधी नीत होती है। ऐसी स्थिति में नयवाद ने यह खोज की कि यह विरोध वास्तविंश है या नहीं ? 'गर यह वास्तविक नहीं है तो इसकी संगति किस प्रकार से हो सकती है ? नयवाद ने इसका समन्वय इस प्रकार किया कि व्यक्ति की दृष्टि से आत्मा अनेक हैं किन्तु शुद्ध चैतन्य को अपेक्षा एक है। इस प्रकार समन्वय कर के नयवाद परस्पर विरोधी दिखाई देने वाले वाकी (या विचारों) का विरोध सिद्ध करता है। इसी प्रकार मात्मा की नित्यता और अनित्यता, कर्त्तापन और अकर्त्तापन आदि के मन्तव्यो का अविरोध भी नयवाद घटाता है। इस प्रकार के अविरोध का मूल विचारक की दृष्टि-तात्पर्य में रहता है। इस दृष्टि को प्रस्तुत शास्त्र मे अपेक्षा' कहा जाता है और नथवाद, अपेक्षावाद भी कहलाता है। -40 सुखलालजी
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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