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________________ ® सूत्र धर्म [४४१ जीव के जिन भावों (परिणामों) से कर्म आते हैं, वह भावास्रव है, जिन भावों से बँधते हैं उन्हें भावबंध कहते हैं, जिन भावों से आते हुए कर्म रुकते हैं उन भावों को भाव-संबर कहते हैं और जिन भावों से कर्म अलग होते हैं उन्हें भावनिर्जरा कहते हैं । जीव के भाव जीव से भिन्न नहीं हैं, अतः भावभास्रव आदि का जीवतत्त्व में समावेश हो जाता है। पुण्य और पाप भी इसी प्रकार जीव और अजीव तत्त्व में गर्भित होते हैं। अर्थात् कार्मणवर्गणा की पुण्य और पाप रूप प्रकृतियों का अजीव में समावेश होता है और जीव के पुण्य-पाप रूप परिणामों का जीवतत्व में । मोक्ष जीव की ही शुद्ध अवस्था है, अतः वह जीव में ही अन्तर्गत है। अथवा द्रव्य और भाव के भेद से मोक्ष भी दो प्रकार का है। कर्मों का सर्वथा अलग होना द्रव्यमोक्ष है और जिन भावों से कम अलग होते हैं वे भाव भावमोक्ष हैं । इस प्रकार मोक्षतत्व भी जीव और अजीव में ही सम्मिलित हो जाता है। इस प्रकार नौ तत्वों का द्रव्यार्थिकनय से दो तत्वों में समावेश हो जाता है । कहीं-कहीं पुण्यतत्व का शुभ श्रास्रव और शुभ बंध में समावेश किया जाता है और पापतत्व का अशुभ प्रास्रव में तथा अशुभ बन्ध में अन्तर्भाव किया जाता है । इस दृष्टि से तत्वों की संख्या सात भी होती है। तात्पर्य यह है कि भेद और अभेद का कथन अपेक्षायाद से होता है अतः इस विषय में अपेक्षा का ध्यान रख कर ही तच्चों के स्वरूप का विचार करना चाहिए। सात नय नय की व्याख्या–प्रत्येक वस्तु अनन्तधर्मात्मक है। अनन्त धर्मों (गुणों) का अखएड पिण्ड ही वस्तु कहलाती है। इन अनन्त गुणों में से किसी एक गुण को प्रधान करके और शेष धर्मों की ओर उदासीन भाव रख कर जानना नय कहलाता है । नय, प्रमाण का एक अंश है ।* प्रमाण * संक्षेप में नयवाद की व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है-विरोधी प्रतीत होने पाले विचारों के वास्तविक अविरोध के मूल की खोज करने वाला और खोज करके उन
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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