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________________ * सूत्र धर्म * संग्रहनय ३ व्यवहारनय ४ ऋजुसूत्रनय ५ शब्दनय ६ मनसिढनय और ७एवंभूतनय । (१) नैगमनय-'नैको गमो विकल्पो यस्त्र स नैगमः, पृथक्-पृथक्सामान्यविशेषयोग्रहणात् ।' अनेक प्रकार से अथात् सामान्य बस मार विशेष रूप से वस्तु को ग्रहण करने वाला अभिग्ना नगान लाना है। एक गम से नहीं किन्तु अनेक गमों से, अनेक प्रकारों गे, अनेक मागों में जो नय किसी वस्तु का स्वरूप-निरूपण करता है, उप नगर बने हैं। नैगमनय सामान्य को भी स्वीकार करता है और शेिष को मा बाकार करता है। किसी वस्तु में, उसके नाम के अनुसार अंशमात्र गुण हो तो भी वह उसे पूर्ण वस्तु मानता है। वह भूत, वर्तमान और भविष्यकाल का ग्राहक है। भूतकाल में जो कार्य हो गया है, वर्तमान में जी का हो रहा है और भविष्य में जो कार्य होगा, उसे सत् मानता है। नंगमनय नाना प्रकार के उपचारों को भी स्वीकार करता है। (२) संग्रहनय-संग्रहणाति विशेषान् सामान्यतया मायक्रोडीकरोति यः स संग्रहः।' अर्थात् विशेषों का (विभिन्न पदार्थों म) सामान्य रूप से ग्रहण करने वाला नय संग्रहनय है। जैसे जीव अजीव रूप विशेषां का 'सत्' इस एक रूप में सामान्य रूप में संग्रहनय ग्रहण करता है। अर्थात् मचा की अपेक्षा जीव और अजीव एक हैं। संसारी, मुक्त, बस, स्थावर आदि जीव जीवत्व सामान्य की दृष्टि से एक हैं। सब प्रकार ...जीब अजीयत्व के लिहाज से एक हैं। इस प्रकार विभिन्न व्यक्तियों में पाये जाने वाले सामान्य धर्म को प्रधान करके संग्रहनय उन व्यक्तियों में पारा स्थापित करता है । संग्रहनय विशेष को स्वीकार नहीं करता। यह नय भी त्रिकालविषयक है और नैगमनय की भाँति ही चारों निक्षेपों को स्वीकार करता है। (२) व्यवहारनय-वि-विशेषतयैव सामान्यमवहरति-मन्यो योऽसौ व्याहारः।' अर्थात् सामान्य को विशेष रूप से ग्रहण करना व्यवहारनथ है। संग्रहनय के द्वारा सामान्य रूप में ग्रहण किये हुए पदाधी म विधि पूर्वक भेद करना न्यबहारमय का काम है। व्यवहारनय वस्तु के बाह्य
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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