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________________ ३७४ ] ® जैन-तत्त्व प्रकाश (१४) परिपूर्णाङ्गता-वक्ता के सभी अङ्ग परिपूर्ण होने चाहिए। अङ्गहीन वक्ता शोभा नहीं देता। (१५) स्वरमाधुर्य—खराब स्वर वाले वक्ता के वचन श्रोताओं को प्रिय नहीं होते। (१६) बुद्धिमत्ता—वक्ता बुद्धिशाली होना चाहिए । (१७) मधुरवचन-जिस वक्ता की भाषा में मिठास नहीं होती, उसके वचन श्रोताओं की प्रीति उत्पन्न नहीं करते। प्रीति उत्पन्न हुए बिना श्रोता मनोयोग से श्रवण नहीं करते। कडक और कठोर भाषा के प्रयोग से श्रोताओं के चित्त में क्षोम पैदा होता है। (१८) वक्ता प्रभावशाली होना चाहिए। जिसका व्यक्तित्व प्रभावशाली होता है उसके वचन भी प्रभावशाली होते हैं। (१६) सामर्थ्य-वक्ता समर्थ होना चाहिए अर्थात् उपदेश देते-देते थक नहीं जाना चाहिए। (२०) विशाल अध्ययन-अनेक ग्रन्थों का अवलोकन, अध्ययन, मनन, चिन्तन होना चाहिए। (२१) अध्यात्मवेत्ता-वक्ता आत्मज्ञानी होना चाहिए । श्रात्मा को जाने विना समस्त ज्ञान निस्सार है; निष्प्रयोजन है। (२२) शब्दों के रहस्य का ज्ञाता होना चाहिए। जो शब्दों के गहरे मर्म को नहीं समझता और अपने आन्तरिक भावों को प्रकट करने के लिए उपयुक्त शब्दों का प्रयोग नहीं कर सकता, वह उपदेश देने योग्य नहीं है। उसका उपदेश कभी भ्रान्ति उत्पन्न कर सकता है और प्रभावजनक नहीं होता। (२३) अर्थ का संकोच और विस्तार करने की योग्यता होनी चाहिए। समय पड़ने पर किसी बात को विस्तृत रूप से समझा सके और कभी विस्तार से कहने की बात को संक्षेप में कह सके । (२४) तर्कज्ञ-वक्ता को युक्ति तथा तर्क का ज्ञाता होना चाहिए। शास्त्र में मूल सिद्धान्तों का प्रतिपादन होता है। प्रत्येक ब्यक्ति के प्रत्येक
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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