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________________ ॐ धर्म प्राप्ति है कर सिद्ध करने की चेष्टा करता है और दूसरे की सत्य बात को भी मिथ्या सिद्ध करना चाहता है। (७) निष्कपटता—जो सरल होता है वहीं यथावत् उपदेश कर सकता है। कपटी पुरुष अपने दुर्गुण को छिपाने के लिए सच्ची बात को उलट देता है। (८) निर्लोभता-निर्लोभ उपदेशक सदा बेपरवाह होता है किसी से दबता नहीं है, किसी की ठकुरसुहाती नहीं कहता। वह राजा और रंकसबको एक सरीखा सत्य उपदेश कर सकता है ।* लोभी और खुशामदी वक्ता श्रोताओं को प्रसन्न करने की नीयत से सत्य बात को भी बदल देता है। (8) अभिप्रायज्ञता-जो-जो प्रश्न श्रोताओं के मन में उत्पन्न हों, उन्हें उनकी मुखमुद्रा से समझ कर स्वयमेव समाधान कर दे। (१०) धैर्य—प्रत्येक विषय को धैर्य के साथ ऐसी स्पष्टता से प्रतिपादन करे जिससे वह श्रोताओं के दिल में बैठ जाय । प्रश्नों से क्षुब्ध न हो । मधुरबा से समाधान करे। (११) हठी नहीं-यदि किसी प्रश्न का उत्तर न जानता हो या तत्काल न सूझे तो हठ पकड़ कर मिन्न प्रकार की स्थापना न करे । नम्रता पूर्वक स्पष्ट कह दे कि मुझे इस प्रश्न का उत्तर ज्ञात नहीं है। अतः किसी ज्ञानी से पूछ कर उत्तर दूंगा। (१२) निन्धकर्म से रहित- सच्चा वक्ता वही है जो चोरी, व्यभिचार, विधासघात आदि निन्दनीय कर्मों से दूर रहता है । जो सद्गुणी होगा वही दूसरों से नहीं दवेगा। (१३) कुलीनता–कुलहीन वक्ता होगा तो श्रोता उसकी मर्यादा नहीं रक्खेंमे और उसके वचनों का प्रभाव नहीं पड़ेगा। * गुकारस्त्वन्धकार ः स्याद्, रुकारस्तनिरोधकः । अन्धकार विनाशित्वाद् गुरुरित्यभिधीयते ॥ अत्-'गुरु' पद में 'गु' का अर्थ अन्धकार है और 'रु' का अर्थ उसे रोकने वाला है। इस प्रकार सम्मकार को रोकने वाला होने से 'गुरु' कहलाता है।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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