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________________ ३७२ ] * जैन-तत्व प्रकाश * सद्वक्ता के २५ गुण (१) दृढ़ श्रद्धा - जब उपदेशक स्वयं पक्की श्रद्धा वाला होता है, तभी वह श्रोताओं की शंका का निवारण करके उन्हें श्रद्धावान् बना सकता है। (२) वाचनाकलाकुशल- वांचने और सुनाने की कला में कुशल हो । कोई भी शास्त्र वांचते समय अटके नहीं, शुद्धता और सरलता से शास्त्र सुनावे | कठिन और रूखे विषय को भी सुगम और सरस करके कहे । (३) निश्चय - व्यवहारज्ञाता - निश्चयनय और व्यवहारनय के स्वरूप को समझने वाला हो । शास्त्र का कौन-सा कथन किस नय से है, इस बात को भलीभाँति नहीं समझने वाला वक्ता अपने श्रोताओं को भ्रम में डाल देता है और स्वयं भी भ्रम में पड़ जाता है। इससे कई प्रकार के अर्थ जाते हैं। (४) जिनाज्ञा के भंग से डरना - वक्ता अपनी जान में सर्वज्ञ भगवान् की आज्ञा के विरुद्ध कोई बात न कहे । एक देश के राजा की आज्ञा भंग करने से भी दण्ड का भागी होना पड़ता है तो तीन लोक के नाथ तीर्थङ्कर भगवान् की आज्ञा का लोप करने वाले की क्या दुर्गति न होगी ९ ऐसा जानकर वीतराग भगवान् की आज्ञा के विरुद्ध प्ररूपणा न करे । (५) क्षमा - जो क्रोधी होगा वह अपने दुर्गुण से डर कर क्षमा आदि धर्मों की यथातथ्य प्ररूपणा करने में भी संकोच करेगा । इसके अतिरिक्त कभी क्रोध के आवेश में आकर अनुचित बात भी कह देगा - रंग में भंग कर देगा | अतएव वक्ता को अपना विवेक सदा जागृत रखने के लिए क्षमावान् अवश्य होना चाहिए । (६) निरभिमानता - विनयवान् की बुद्धि बड़ी प्रबल रहती है और इस कारण बहु यथातथ्य उपदेश कर सकता है। अभिमानी पुरुष सत्यअसत्य का विचार नहीं करता। अपनी असत्य बात को अनेक कुहेत लगा
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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