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________________ ८ ] ® जैन-तत्त्व प्रकाश और तीन योग से* आरम्भ-परिग्रह का त्याग करके दीक्षा धारण करते हैं। दीक्षा धारण करते ही उन्हें चौथे मनःपर्यय ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है । कुछ काल तक छमस्थ-अवस्था में रह कर तपस्या करते हैं। तपस्या करते समय देव, दानव और तिर्यञ्च सम्वन्धी अनेक प्रकार के जो उपसर्ग होते हैं, उन्हें समभाव से सहन करते हैं। किसी-किसी को उपसर्ग नहीं भी होते हैं। अनेक प्रकार का दुष्कर तपश्चरण करके, चार घन-घातिया कर्मों का क्षय करते हैं । वह इस प्रकार हैं: (१) सर्व प्रथम दर्शनमोहनीय एवं चारित्रमोहनीय का क्षय होने से अनन्त आत्म-गुणरूप यथाख्यात चारित्र की प्राप्ति होती है। मोहनीय कर्म का क्षय होते ही (२) ज्ञानावरणीय (३) दर्शनावरणीय (४) और अन्तराय कर्मों का एक साथ नाश हो जाता है। ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय होने से अनन्त केवलज्ञान प्राप्त होता है। केवलज्ञान प्राप्त होने से समस्त द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, भव को जानने लगते हैं अर्थात् सर्वज्ञ हो जाते हैं। दर्शनावरणीय कर्म का क्षय होने से अनन्त केवलदर्शन की प्राप्ति होती है, जिससे उक्त द्रव्य आदि पाँचों को देखने लगते हैं अर्थात् सर्वदर्शी हो जाते हैं। अन्तराय कर्म का क्षय होने से अनन्त दानलब्धि, लाभलब्धि, भोगलब्धि, उपभोगलब्धि और वीर्यलब्धि की प्राप्ति होती है जिससे अनन्त शक्तिमान होते हैं। चार घनघातिया कर्मों का क्षय होने के पश्चात् (१) वेदनीय (२) आयुष्य (३) नाम और (४) गोत्र, यह चार अघातिया कर्म शेष रह जाते हैं। यह चारों कर्म शक्तिरहित होते हैं। जैसे भुना हुआ बीज अंकुर को उत्पन्न नहीं कर सकता, उसी प्रकार यह कर्म अरिहन्त भगवान् की आत्मा में किसी प्रकार का विकार उत्पन्न नहीं कर सकते। आयु ___® तीन करण-तीन योग के नौ भंग होते हैं।-(१) मन से न करे (२) मन से न करावे (३) मन से करने वाले की अनुमोदना न करे (४) वचन से न करे (५) वचन से न करावे (६) वचन से करने वाले की अनुमोदना न करे (७) काय से न करे (८) काय से न करावे (E) काय से करने वाले की अनुमोदना न करे। इन नौं भंगों के द्वारा पाप का पूर्ण रूप से त्याग होता है।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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