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________________ * अरिहन्त [ ७ . उत्तम योग होने पर, शुभ मुहूर्त्त में, मतिज्ञान श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान, इन तीन ज्ञानों सहित जन्म लेता है। तीर्थङ्कर के जन्म के समय छप्पन कुमारिका देवियाँ आकर जन्म का महोत्सव करती हैं। चौंसठ इन्द्र आदि देव मेरुपर्वत व पडक वन में ले जाकर बहुत उमंग और धूमधाम से जन्म - महोत्सव करते हैं । यह इन्द्रों का जीतव्यवहार अर्थात् परम्परागत व्यवहार है । फिर तीर्थङ्कर के पिता जन्म महोत्सव करके नाम रखते हैं । तीर्थ बालक्रीड़ा करके यौवनावस्था को प्राप्त होने के पश्चात् अगर भोगा कर्म का उदय होता है तो उत्तम स्त्री का पाणिग्रहण करके रूक्ष-अनासक्तवृत्ति से भोग भोगते हैं । फिर दीक्षा ग्रहण करने से पहले प्रतिदिन एक करोड़ आठ लाख के हिसाब से कुल तीन अरब, अठासी करोड़ सुवर्णमोहरों का बारह महीनों तक दान देते हैं । भगवान् तीर्थङ्कर दीक्षा ग्रहण करने से पहले दान-धर्म का जो आदर्श उपस्थित करते हैं, उसका जैनों को यथाशक्ति अवश्य अनुकरण करना चाहिए । ' फिर नौ लौकान्तिक देव, देवलोक से आकर भगवान् को चेताते हैं अर्थात् उनके वैराग्य की अनुमोदना करते हैं । तब तीर्थङ्कर तीन करण * छप्पन कुमारियों के नाम - (१) भोगंकरा (२) भोगवती (३) सुभोगा (४) भोगमालिनी (५) सुवत्सा (६) वत्समित्रा (७) पुष्पमाला (८) अनिन्दिता ( यह आठ धोलोक में रहने वाली हैं), (६) मेघंकरा (१०) मेघवती (११) सुमेधा (१२) मेघमालिनी (१३) तोयधरा (१४) विचित्रा (१५) वारिषेणा (१६) बलाहका ( यह ऊर्ध्वलोक में रहने वाली हैं), (१७) नन्दोत्तरा (१८) नन्दा (१६) आनन्दा (२०) नन्दीवर्धना (२१) विजया (२२) वैजयन्ती (२३) जयन्ती (२४) अपराजिता ('यह आठ पूर्व रुचक पर रहने वाली हैं ) (२५) समाहारा (२६) सुप्रदत्ता (२७) सुप्रबुद्धा ( २८ ) यशोधरा (२६) लक्ष्मीवती (३०) शेषवती (३१) चित्रगुप्ता (३२) वसुन्धरा ( यह आठ दक्षिण रुचक पर रहने वाली हैं) (३३) इलादेवी (३४) सुरादेवी (३५) पृथ्वी (३६) पद्मावती (३७) एक नाशा (३८) नवमिका (३६) भद्रा (४०) सीता ( यह आठ पश्चिम रुचक पर रहने वाली हैं) (४१) अलंबुसा (४२) मितकेशी (४३) पुराडरिका (४४) वारुणी (४५) हासा (४६) सर्वप्रभा (४७) श्री भद्रा (४८) सर्वभद्रा ( यह आठ उत्तर रुचक पर रहने वाली हैं), (४६) चित्रा (५०) चित्रकरा (५१) शतेरा (५२) वसुदामिनी (यह चार विदिशा रुचक पर रहने वाली हैं), (५३) रूपा (५४) रूपासिका (५५) सुरूपा और (५६) रूपवती ( यह चार भी विदिशा रुचक पर रहने वाली हैं) ।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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