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________________ जैन-तत्स्व प्रकाश - - (8) निर्मल सम्यक्त्व (समकित) का पालन करने से (१०) गुरु आदि पूज्य जनों का विनय करने से (११) निरन्तर षड्-आवश्यक का अनुष्ठान करने से (१२) शील अर्थात् ब्रह्मचर्य अथवा उत्तर गुणों का, तों-मूल गुणों का तथा प्रत्याख्यान का अतिचार-रहित पालन करने से (१३) सदैव वैराग्य भाव रखने से (१४) बाह्य (प्रकट) और अभ्यन्तर (गुप्त) तपश्चर्या करने से (१५) सुपात्र को दान देने से (१६) गुरु, रोगी, तपस्वी, वृद्ध तथा नवदीक्षित मुनि की वैयावृत्य-सेवा करने से (१७) समाधिभाव-क्षमाभाव रखने से (१८) अपूर्व अर्थात् नित्य नये ज्ञान का अभ्यास करने से (१६) बहुमान आदरपूर्वक जिनेश्वर भगवान् के वचनों पर श्रद्धान करने से और (२०) तन मन, धन से जिन शासन की प्रभावना करने से इन बीस कामों में से किसी भी काम को विशिष्ट रूप से करने वाला प्राणी तीर्थङ्कर गोत्र का उपार्जन करता है।* वह बीच में देवलोक का या नरक का एक भव+ करके तीसरे भव में तीर्थङ्कर-अरिहन्त पद को प्राप्त होता है । ___ अरिहन्त पद को प्राप्त करने वाला प्राणी मनुष्यलोक के पन्द्रह कर्मभूमि क्षेत्र में, उत्तम निर्मल कुल में, अपनी माता को १४ उत्तम स्वाम होने के साथ अवतरित: होता है। सवा नौ महीने पूर्ण होने पर, चन्द्रबल आदि * दोहा-अरिहन्त सिद्ध सूत्र गुरु, स्थविर बहुस्त्री जान । गुण गाते तपस्वी तने, नित-नित सीखे ज्ञान ॥१॥ शुद्ध समकित नित्य आवश्यक, व्रत शुद्ध शुभ ध्यान । तपस्या करते निर्मली, देत सुपात्र दान ॥२॥ वेयावच सुख उपजावते, अपूर्व ज्ञान उद्योत । सूत्र भक्ति मारग दिपत, बधे तीर्थङ्कर गोत ॥३॥ + कण महाराज नया श्रेणिक राजा की तरह नरक से आकर । ४ चौदह स्वप्न इस प्रकार हैं-(१) ऐरावत हस्ती (२) धोरी वृषभ (३) शार्दूलसिंह (४) लक्ष्मीदेवी (५) पुष्पमालाओं का युगल (६) पूर्ण चन्द्रमा (७) सूर्य (८) इन्द्रध्वजा (E) पूर्ण कलश (१०) पद्मसरोवर (११) क्षीर सागर (१२) देवविमान (१३) रत्नों की राशि (१४) धूम रहित अग्नि की ज्वाला। नरक से आने वाले तीर्थङ्कर की माता बारहवें स्वप्न देवविमान के स्थान पर भवनपतिदेव का भवन देखती है। _ + अवतरित होना-(१) व्यवनकल्याणक, जन्म लेना (२) जन्मकल्याणक, दीक्षा धारण करना (३) दीक्षाकल्याणक, केवल ज्ञान प्राप्त होना (४) ज्ञानकल्याणक और मुक्ति प्राप्त होना (५) मोक्षकल्याणक कहलाता है ।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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