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________________ * धर्म प्राप्ति * [ ३५१ राशि में आया और तब उसने अनन्त पुद्गलपरावर्त्तन किये । पुद्गलपरावर्त्तन अति सूक्ष्म है । उसका यहाँ वर्णन किया जाता है । पुद्गलपरावर्त्तन जीव आठ प्रकार से पुद्गलपरावर्त्तन करता है: - [१] द्रव्य से [२] क्षेत्र से [३] काल से [४] भाव से; और इन चारों सूक्ष्म तथा बादर के भेद से दो-दो प्रकार होते हैं । सब मिल कर आठ प्रकार से पुद्गलपरावर्त्तन होते हैं । उनका स्वरूप इस प्रकार है: (१) बादर द्रव्य पुद्गलपरावर्त्तन - [१] श्रदारिक शरीर (मनुष्यों और तिर्यञ्चों को प्राप्त होने वाला हाड़ मांस और चमड़ी का पुतला रूप शरीर), [२] वैक्रिय शरीर ( एक-अनेक छोटे-बड़े आदि नाना रूप धारण कर सकने वाला देवों और नारकों का शरीर ), [३] तैजसशरीर (अन्दर रह कर आहार को पचाने वाला और सब संसारी जीवों को सदैव प्राप्त रहने वाला शरीर), [४] कार्मणशरीर (कर्मों का समुदाय रूप शरीर, जो सब न्यूनातिरिक्त युज्यते परिमाणवत् । वस्तुन्यपरिमेये तु नूनं तेषामसम्भवः ।। अर्थात् - जिस वस्तु का परिमाण होता है - जो परिमित होती है, उसी का कभी अन्ता सकता है, उसी में न्यूनता या अधिकता का व्यवहार किया जा सकता है। इसके विपरीत जो वस्तु अपरिमित — अनन्त होती है, उसमें न्यूनता श्रधिकता आदि का होना सम्भव नहीं है । न वह घटती है, न बढ़ती है, न समाप्त होती है। तात्पर्य यह है कि जब जीवराशि अपरिमित है तो उसका क्षय कदापि नहीं हो सकता और इसी कारण संसार जीवों से कभी सुना भी नहीं हो सकता । * यहाँ तीसरा आहारक शरीर नहीं गिना गया है। इसका कारण यह है कि आहारक शरीर चौदह पूर्वो के धारक लब्धिवान् मुनि को प्राप्त होता है। जब चौदह पूर्व - घारी मुनि को किसी गहन विषय में सन्देह उत्पन्न होता है और सर्वज्ञ का सविधान नहीं होता और जब दारिक शरीर से अन्य क्षेत्रवर्त्ती सर्वज्ञ भगवान् के पास जाना सम्भव नहीं होता, तब वह मुनि अपनी आहारकलब्धि का प्रयोग करते हैं और उस लब्धि से एक हाथ का छोटा-सा विशिष्ट शरीर बनाते हैं। वह शरीर शुभ पुद्गलों का बना होने से सुन्दर होता
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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