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________________ * जैन-तत्त्व प्रकाश ३५० ] झेलने के बाद धर्म की प्राप्ति होती है, इस संबंध में निम्नलिखित बातें ध्यान देने योग्य है । 'अदुवा श्रतखुत्तो' + अर्थात् श्रनन्त वार सभी जीव संसार में परिभ्रमण कर चुके हैं। इस वाक्य में जो 'अदुवा' (अथवा ) पद रखा गया है, उससे यह निश्चित होता है कि यह जीव पहले इतरनिगोद अर्थात् व्यहारराशि ( वह जीवराशि, जिसमें से अनन्त जीव अभी तक अपना एकेन्द्रियपन त्याग कर द्वीन्द्रिय अवस्था को भी नहीं प्राप्त कर सके हैं) में था । उस व्यवहार राशि में उसका अनन्त काल व्यतीत हुआ । इस प्रकार काल व्यतीत होते-होते, अकाम निर्जरा के प्रभाव से ( बिना मन सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास आदि के कष्ट सहने से ) कर्म कुछ पतले पड़े । तब जीव व्यवहार + यह पाठ श्री भगवतीसूत्र में तथा जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति के अंतिम भाग में है । स्याद्वादमञ्जरी नामक न्याय ग्रंथ में भी यह उद्धृत किया गया है : गाथा - गोल्ला ह असं खिज्जा असंख गिग्गोयगोलश्रो भणियो । इक्किमि निगोए अणन्तजीवा मुणेव्वा ॥१॥ अर्थात् - एक निगोद में असंख्यात गोला है, एक-एक गोले में असंख्यात निगोद-शरीर हैं और एक-एक शरीर में अनन्त अनन्त जीव हैं । सिज्झन्ति जत्तिया खलु, इह संववहाररासीदो । एति up areas - रासिदो तत्तिया तम्हि ||२|| अर्थात् - व्यवहार राशि में से जितने जीव सिद्ध गति में जाते हैं, उतने जीव अनादि निगोद वनस्पतिराशि में से निकल कर व्यवहारराशि में आ जाते हैं । श्रतएव च विद्वत्सु मुच्यमानेषु सन्ततम् । ब्रह्माण्ड लोकजीवानाम - नन्तत्वाद शून्यता । अर्थात् - इस कारण ज्ञानी पुरुष निरन्तर संसार में से निकल कर मोक्ष में जाते रहते हैं, फिर भी संसारी जीव-राशि का अनन्त होने के कारण कभी क्षय नहीं हो सकता । तात्पर्य यह है कि जीव संसार से मोक्ष में जाते रहते हैं किन्तु मोक्ष से लौट कर फिर संसार में नहीं आते। ऐसी स्थिति में यह संशय किया जा सकता है कि कभी न कभी सभी जीव मोक्ष को चले जायेंगे तो संसार खाली हो जायगा। इस संशय का निवारण किया गया है । बतलाया गया है कि संसार में जो जीव-राशि है, वह अनन्तानन्त है । उसमें से भी जितने जीव मोक्ष में जाते हैं उतने ही जीव अव्यवहारराशि में से व्यवहारराशि में आ जाते हैं, अतः व्यवहारराशि में जीव कम नहीं होते। रह गई अव्यवहारराशि, सो वह अनन्तानन्त होने के कारण अक्षय है। इस कारण संसार कभी जीवशून्य नहीं होता । यह बात आगे के लोक में और स्पष्ट की गई है:
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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