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________________ ३५२ ] ® जैन-तत्त्व प्रकाश संसारी जीवों के होता है), यह चार शरीर तथा [५] मनोयोग[६] वचनयोग[७] श्वासोच्छ्वास, इन सात वर्गणाओं के जितने पुद्गल लोक में हैं, उन सबको जब स्पर्श कर चुके तब द्रव्य से 'बादर पुद्गलपरावर्त्तन' हुआ कहलाता है । (२) सूक्ष्म द्रव्य पुद्गलपरावर्तन-ऊपर कही हुई सातों वर्गणाओं का अनुक्रम से स्पर्श करे। जैसे-लोक में जितने भी औदारिक वर्गणा के पुद्गल हैं, उन सबका पहले स्पर्श कर ले, फिर अनुक्रम से वैक्रियवर्गणा के पुद्गलों का स्पर्श करे, फिर इसी प्रकार क्रम से तैजस वर्गणा के पुद्गलों का, कार्मण वर्गणा के पुद्गलों का और फिर मनयोग, वचनयोग और श्वासोच्छवास वर्गणा के पुद्गलों का स्पर्श करे। इसमें यह बात ध्यान रखने योग्य है कि औदारिक वर्गणा के पुद्गलों को फरसते-फरसते, पूरा फरसने से पहले, बीच में अगर वैक्रिय वर्गणा के जो पुद्गलों को फरस लिया तो औदारिक वर्गणा के जो पुद्गल पहले फरसे थे, उनकी गिनती नहीं की जाती। औदारिक वर्गणा के पुद्गलों को फरसना आरम्भ करने पर उन्हीं को फरसता जाय-बीच में किसी भी दूसरी वर्गणा के पुद्गलों को न फरसे तब उनकी गिनती होती है। इसी प्रकार पूर्वोक्त सातों वर्गणाओं के समस्त पुद्गलों का स्पर्श करके पूर्ण करने पर सूक्ष्म द्रव्य पुद्गलपरावर्तन कहलाता है। ___ (३) बादर क्षेत्र पुद्गलपरावर्चन-मेरुपर्वत से प्रारम्भ करके समस्त दिशाओं में और विदिशाओं में आकाशप्रदेशों की असंख्यात श्रेणियाँ ठेठ अलोक तक बनी हुई हैं। इन सब आकाशप्रदेशों को जन्म से और मृत्यु से स्पर्श करे। बाल के एक अग्रभाग (नौंक) बराबर भी जमीन खाली न छोड़े, तब बादर क्षेत्र पुद्गलपरावर्तन होता है। (४) सूक्ष्म क्षेत्र पुद्गलपरावर्तन–मेरुपर्वत से जो पूर्वोक्त श्रेणियाँ है, प्रशस्त उद्देश्य से बनाया जाने के कारण निरवद्य होता है और अत्यन्त सक्ष्म होने के कारण श्रव्याघाती होता है। अर्थात् न किसी को रोकता है, न किसी से रुकता ही है। इस शरीर से वे मुनि सर्वज्ञ के पास जाकर अपना सन्देह-निवारण करते हैं। तदनन्तर वह शरीर बिखर जाना है। यह सब कार्य अन्तमुहूर्त में ही हो जाता है। अन्त में लब्धि का प्रयोग करने के लिए मुनि प्रायश्चित लेते हैं। ऐसे मुनि अर्धपुद्गलपरावर्तन से ज्यादा संसार-परिप्रमेयानाही करते। इस कारण पुद्गलपरावर्तन में आहारक शरीर नहीं गिना गया है।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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