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* साधु *
लाना । (२) भूतकर्म-भूत प्रेत तथा वायु आदि के मन्त्र, तन्त्र, यन्त्र
आदि बताना और देना। (३) प्रश्नकर्म-रमल विद्या, शकुन विद्या आदि के योग बतला कर प्रश्नों के उत्तर देना और लाभ-हानि बतलाना । (४) निमित्तकर्म-ज्योतिषशास्त्र के आधार से निमित्त बतलाना और भूत, भविष्य तथा वर्तमान का वृत्तांत बतलाना । (५) आजीविकाकर्म-अपनी जाति बतला कर, कुल बताकर, शिल्पकला दिखा कर, धन्धा बता कर, व्यापार बतला कर, गुण प्रकट करके तथा ज्ञान प्रकट करके आहार लेना। (६) कन्ककुरुककर्म-माया-कपट करना, दंभ करना, ढोंग करना और लोगों को डराना । (७) लक्षणकर्म-सामुद्रिक विद्या के आधार से स्त्री-पुरुषों के हाथ-पैर आदि के चिह्नों का फल बतलाना, तिल, मसा आदि का फल बतलाना । इन सात कर्मों में से किसी भी कर्म को करने वाला साधु कुशील कहलाता है।
(४) संसता-जैसे गाय-भैंस के बाँटे में अच्छी-बुरी सभी वस्तुओं का सम्मिश्रण होता है, उसी प्रकार जिनकी आत्मा में गुण और अवगुण मिले-जुले हों, जिन्हें अपने गुण-दोषों का खयाल न हो, जो देखादेखी साधु का वेष धारण करके पेट भरते हों, तथा चाहे जिस मत वाले के साथ और पासस्था आदि के साथ मिल कर रहते हों, जो भेदभाव को न समझते हो, वह 'संसत्ता' साधु कहलाते हैं। यह क्लिष्ट अर्थात् क्लेशयुक्त और असंक्लिष्ट अर्थात् क्लेशरहित के भेद दो प्रकार के होते हैं।
(५) अपछंदा-गुरु की, तीर्थङ्कर की और शास्त्र की आज्ञा का उल्लंघन करके अपनी मर्जी के अनुसार प्रवृत्ति करने वाला, ऋद्धि का, रस का और साता का अभिमान करने वाला, इच्छानुसार उत्सूत्र प्ररूपणा करने वाला |*
* इस वक्त इतनी फाट फूट होने का-संवत्सरी जैसे महापर्व में भङ्ग पड़ने का अपने धर्म को लज्जास्पद काम करने का कारण मुझे तो मुख्य यही मालूम पड़ता है कि जराक ज्ञान का, क्रिया का. वाचालता का-मिथ्याडम्बर अवलोकन कर, जो गुरु आदि की प्राज्ञा का मन कर अपछन्द-स्वच्छन्दाचारी बने हैं, उनको मानना पूजना, यही देखाता है, . यदि ऐसे निन्हवों को जो सत्कार सन्मान नहीं देवे तो जो वे हलु कमी हो तो तत्काल