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________________ ३३२ । ® जैन-तत्त्व प्रकाश यह पाँच प्रकार के साधु सत्कार-सन्मान के योग्य नहीं है। सत्य सनातन जैनधर्म में गुणों की पूजा, श्लाघा, वन्दना, सत्कार और सन्मान करने का विधान है। अतएव गुरु की परीक्षा अवश्य करनी चाहिए । दोहा-ईर्या भाषा एषणा, ओलखजो आचार । सुगुणी साधु देखकर, वन्दो बारम्बार ॥ साधु की ८४ उपमाएँ उरग-गिरि-जलण-सागर, नहतल-तरुगणसमो हि जो होइ । भमर-मिय-धारिणी-जलरुह-रवि-पवणसमो य सो समणो ॥ अर्थात्-(१) उरग (सर्प), (२) गिरि (पर्वत), (३) ज्वलन (अग्नि), (४) सागर, (५) नमस्तल (आकाश), (६) तरुगण (वृक्षसमूह), (७) भ्रमर, (८) मृग (हिरन), (६) धारिणी (पृथ्वी), (१०) जलरुह (कमल), (११) रवि (सूर्य), और (१२) पवन के समान श्रमण होता है । यहाँ श्रमण के लिए जो बारह उपमाएँ दी गई हैं, उनमें से प्रत्येक उपमा के सात-सात गुण गिनने से १२४७-८४ उपमाएँ हो जाती हैं । इन उपमाओं का विवरण इस प्रकार है: [१] उरग-श्रमण सर्प के समान होता है । [१] जैसे साँप दूसरे के लिए बने हुए स्थान में रहता है, उसी प्रकार साधु, गृहस्थ द्वारा अपने खुद के लिए बनाये स्थान में रहता है। [२] जैसे अगंधन जाति के सर्प वमन किये विष को फिर नहीं चूसता, उसी प्रकार साधु त्यागे हुए भोगोपभोग भोगने की कभी इच्छा नहीं करता। [३] जैसे साँप सीधा चलता है उसी प्रकार साधु सरलता से मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति करता है। [४] जैसे साँप स्वस्थान आ जावे । कदा चत् वे नहीं सुधरें तो रनकी आत्मा से डूबे। किन्तु धर्म में फूट फजीती और निन्दनीय कार्य होने का प्रसग तो न आवे । पाठक इस कथन को जरूर ध्यान में ।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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