SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 362
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * जैन-तत्त्व प्रकाश ३१८ ] (४) अभ्याहृत — उपाश्रय में या अन्यत्र साधु के सामने आहार आदि वस्तु लाकर देना । (५) रात्रिभक्त - रात्रि में अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, खाना, यहाँ तक कि सूँघने की तमाखू आदि भी भोगना रात्रिभक्त श्रनाचीर्ण है । (६) स्नान - हाथ-पाँव धोना देशस्नान है और समस्त शरीर का प्रक्षालन करना सर्वस्नान है। किसी भी प्रकार का स्नान करना अनाचीर्ण है । (७) गंध — बिना कारण चन्दन, अतर आदि सुगंधित पदार्थों का सेवन करना । (८) माल्य - पुष्पों की या मणि मोती आदि की माला पहनना । (६) वीजन - पङ्खा, पुट्ठा, कपड़ा आदि से हवा करना । (१०) स्निग्ध - घृत, तेल, गुड़, शकर आदि वस्तुएँ रात्रि में अपने पास रखना । (११) गृहिपात्र – गृहस्थ के थाली, कटोरी आदि पात्रों में भोजन करना । (१२) राजपिण्ड – राजा के लिए बना हुआ ( बलवर्धक ) आहार लेना या मंदिरा-मांस आदि का सेवन करना । (१३) किमिच्छिक – जहाँ सदावर्त्त बँटता है ऐसी दानशालाओं में जाकर आहार लेना । (१४) संवाहन - हड्डी, माँस, त्वचा बालों आदि को सुखदायक तेल बिना कारण शरीर पर मलना । ( रोग निवारण के लिए वातहर तेल आदि की मालिश करने में यह दोष नहीं लगता । (१५) दन्तप्रधावन - दाँतों की सुन्दरता बढ़ाने के उद्देश्य से दंतमंजन, राख या मिस्सी आदि रगड़ना । (दाँतों में रोग होने पर औषध लगाने या घिसने से यह दोष नहीं लगता है | ) (१६) संप्रश्न - गृहस्थ या असंयति से कुशलप्रश्न पूछना | (१७) देहप्रलोकन - काच में अथवा पानी या तेल में अपने मुँह की परछाई देखना ।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy