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________________ 8 साधु 8 [ ३१७ कि मैं दूसरों को नहीं तार सकूँगा ! भगवान् ने तो आठ प्रवचनमाता (५ समिति ३ गुप्ति) के ज्ञाता जघन्य ज्ञानी को भी आराधक कहा है। (२२) दर्शनपरीग्रह-इतने वर्ष संयम पालते हो गये फिर भी कोई लब्धि प्राप्त नहीं हुई ! किसी देव के भी दर्शन नहीं हुए ! तो करनी का फल फल मिलेगा या नहीं ? स्वर्ग होगा या न होगा ? ऐसा तर्क-वितर्क नहीं करना चाहिए । क्यों कि माली सींचे सौ घड़े, ऋतु आये फल होय । अर्थात् काल का परिपाक होने पर ही क्रिया के फल की प्राप्ति होती है। नरक, स्वर्ग मोक्ष आदि जो-जो भाव केवलज्ञानी भगवान् ने अपने ज्ञान में देखकर बतलाये हैं, वे अन्यथा नहीं हो सकते । उनके विषय में लेश मात्र भी शंका नहीं करनी चाहिए। इस प्रकार दृढ़ श्रद्धाशील होकर रहना । इन बाईस परीषहों को जो समभाव से सहन करते हैं, वही सच्चे साधु होते हैं । इन परीषहों का वर्णन श्रीउत्तराध्ययन सूत्र के द्वितीय अध्ययन में किया गया है। अनाचीर्ण जिन क्रियाओं का पूर्वकालीन महापुरुषों ने सेवन नहीं किया है, अतएव जो सेवन करने योग्य नहीं हैं, उन्हें अनाचीर्ण कहते हैं । अनाचीर्ण ५२ हैं। संयमी जनों को अपना संयम शुद्ध रखने के लिए अनाचीों से सदैव बचना चाहिए । अनाचीर्ण का स्वरूप इस प्रकार है: (१) औद्देशिक-जो आहार, वस्त्र, पात्र, स्थानक आदि साधु के निमित्त बनाया गया हो, उसका उपभोग करना औद्देशिकं अनाचीर्ण है। (२) क्रीतकृत–साधु के निमित्त खरीद करके दी जाने वाली वस्तु अगर साधु ग्रहण करे तो क्रीतकृत अनाचीर्ण होता है। (३) नियागपिंड-पहले से आमंत्रण स्वीकार करके आहार लेना ।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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