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________________ ३१६ ] ® जैन-तत्त्व प्रकाश (१४) याचनापरीषह-आहार, औपथ आदि वस्तुओं की याचना करने के लिए जाना पड़े तो ऐसा न समझे कि-'मैं ऊँचे कुल का होकर कैसे करूँ ?' इस प्रकार का अभिमान, लज्जा या ग्लानि न आने दे किन्तु ऐसा विचार करे कि साधु का आचार तो प्रत्येक वस्तु को याचना करके ही प्राप्त करने का है। (१५) अलाभपरीषह-याचना करने पर भी अगर इच्छित वस्तु की प्राप्ति न हो तो लेश मात्र भी खेद न होने दे। (१६) रोगपरीषह-शरीर में किसी प्रकार का रोग उत्पन्न हो जाय तो हाए-हाय न करे। दीनतापूर्ण शब्द बोलकर दुःख प्रकट न करे और न मन को मलीन करे। (१७) तृणस्पर्शपरीषह-रोग से दुर्बल हुए शरीर से पृथ्वी का कठिन स्पर्श सहन न हो सके, चलते समय काँटे आदि पैर में चुभे तो उसे समभाव से सहन करे। (१८) जल्लमलपरीषह-मैल या पसीने से घबरा कर साधु स्नान करने की इच्छा तक न करे । मन में ग्लानि न लावे ! (१६) सत्कारपरीषह-कोई वंदना न करे या नमस्कार न करे तो भी साधु को बुरा नहीं मानना चाहिए । मुनि अपने सन्मान एवं अपमान को भी समान भाव से सहन करे। (२०) प्रज्ञापरीषह-कोई साधु विशेष ज्ञानी हो, बहुत लोग उससे वाचना लेने आवें, प्रश्न पूछने आवें, उस प्रसंग पर साधु उकता करके ऐसा विचार न करे कि मैं मूर्ख रहा होता तो अच्छा था। कम से कम ऐसी परेशानी तो न भोगनी पड़ती। (२१) अज्ञानपरीषह-बहुत परिश्रम करने पर भी ज्ञान न चढ़े, घोखा हुआ याद न रहे या समझ में न आवे तो खेद न करे। अथवा कोई मूर्ख पुरुष मूर्ख, बुद्ध आदि कडक शब्द कहे तो ऐसा विचार न करे कि मैं निरन्तर ज्ञानप्राप्ति में संलग्न रहता हूँ, यथायोग्य तपस्या भी करता हूँ, फिर भी मुझे ज्ञान प्राप्त नहीं होता ! मेरा जन्म व्यर्थ है। वरन् ऐसा विचार करे
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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