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________________ 8 उपाध्याय 8 [२७७ गरीब कर्जदार को सौ रुपये ऋण चुकाना हो और वह साहूकार के सामने नम्रता प्रकट करके ७५ रुपये देकर क्षमा याचना करे तो साहूकार सन्तुष्ट होकर ले लेता है । इसी प्रकार शत्रु के समक्ष नम्रतापूर्वक अपराध की क्षमा माँग ली जाय तो क्षमा मिल सकती है और थोड़े में बात निवट जाती है। पानी से महाज्वाला भी शान्त हो जाती है तो नम्रता से शत्र अपनी शत्रुता का त्याग कर दे, इसमें क्या आश्चर्य है ? नम्रता से अवश्य ही वैर-विरोध मिट जाता है । अगर शत्रु का अपराध हो तो उसके शान्त हो जाने के बाद समझाने से वह सुधर जाता है, पश्चात्ताप करता है। क्रोधावेश में अगर कोई मारता है तो मार खाने वाले विवेकशील पुरुष को सोचना चाहिए:-यह मारता है सो मुझे नहीं मारता है। मुझे (आत्मा को) कोई मार ही नहीं सकता । आत्मा के विषय में कहा है नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः । न चैनं क्लेदयन्त्यापो, न शोषयति मारुतः ॥ अर्थात्-आत्मा को शस्त्र छेद नहीं सकते; अग्नि जला नहीं सकती, जल गला नहीं सकता और वायु सोख नहीं सकती। आत्मा अजर है, अमर है, अविनाशी है, संसार की कोई भी भौतिक वस्तु उसका स्पर्श भी नहीं कर सकती। शरीर आत्मा से भिन्न है, पुद्गल का पिएड है । इसका नाश अवश्यंभावी है। तो फिर इस विनाशशील शरीर के लिए मैं अपने क्षमाधर्म को क्यों नष्ट करूँ ? यह भी सोचना चाहिए जैसे प्रवीण बने हुए शिष्य की परीक्षा ली जाती है, इसी प्रकार यह मारने वाला मेरी धर्मनिष्ठा की परीक्षा ले रहा है । परीक्षा के समय में मुझे असफल नहीं होना चाहिए । अगर यह परीक्षक न मिलता तो कैसे समझ पाता कि मैं क्षमाधर्म को प्राणों के समान पालने की भगवान् की जो पहली आज्ञा है, उसका ठीक तरह पालन कर सका हूँ. या नहीं कर सका हूँ ? अतएव ऐसे अवसर पर क्षमाभाव धारण करके, अटल रह कर परीक्षा में उत्तीर्ण होकर मुझे मुक्ति का प्रमाणपत्र लेना चाहिए।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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