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________________ २७६ ] * जैन-तत्त्व प्रकाश कर्म-निर्जरा का ऐसा सुअवसर बार-बार प्राप्त होना कठिन है। आज मुझे अनायास ही यह प्राप्त हो गया है। इसे गँवा देना योग्य नहीं है। श्री हुक्म गुनि द्वारा रचित 'अध्यात्मप्रकरण' में लिखा है कि समभाव से एक ही गाली सहने वाले को ६६ करोड़ उपवासों का फल होता है। अगर तू गाली देने वाले को बदले में गाली देगा और उसकी बराबरी करेगा तो फिर ज्ञानी और अज्ञानी में अन्तर ही क्या रह जायगा ? तू ने घोर परिश्रम करके जो ज्ञान प्राप्त किया है उसका फल ही क्या हुआ ? ___ अगर कोई अपशब्द कहता है तो उसके क्रोध की ओर ध्यान न देकर शब्दों की ओर ध्यान देना चाहिए । कहने वाला जो दुर्गुण बतलाता है, उनके विषय में विचार करना चाहिए। अगर वे दुर्गुण अपने भीतर मौजूद हैं तो सोचना चाहिए कि भीतरी रोग की परीक्षा के लिए वैद्य-डाक्टर को फीस देनी पड़ती है, फिर भी उनका ऐहसान मानना पड़ता है और रोग को दूर करने के लिए चिकित्सा करानी पड़ती है । लेकिन इस निन्दक ने मेरी नाड़ी आदि की परीक्षा किये बिना ही, कोई फीस लिये बिना ही भीतर का भयंकर रोग बतला दिया है । अगर मैं वदले में इसका अपकार करूं तो कितनी नीचता होगी ? इस प्रकार विचार कर क्षमा धारण करनी चाहिए । अगर निन्दक द्वारा कहे हुए दोष अपने भीतर विद्यमान न हों तो विचारना चाहिए कि -- हीरा को काच कह देने से हीरा, काच नहीं बन जाता है । इसी प्रकार जब वास्तव में मैं बुरा नहीं हूँ तो इसके कहने से कैसे बुरा हो जाऊँगा? अगर कोई क्रोध के अधीन होकर अपशब्द कहने के बदले प्रहार करेमारे तो क्षमाशील पुरुष विचार करते हैं कि-इसके और मेरे भवान्तर का कोई बदला होगा; सो यह ले रहा है। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है: ___कडाण कम्माण न मोक्ख अस्थि ।' अर्थात् किये कर्म का फल भोगे विना छुटकारा नहीं मिल सकता । यहाँ नहीं चुकाऊँगा तो किसी अगले जन्म में ब्याज समेत चुकाना पड़ेगा। अतएव यह कष्ट समभाव से सहन करके अभी ऊरिन हो जाना अच्छा है।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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