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________________ * उपाध्याय 8 [२७५ रहा है और सत्यवादी पर क्रोध करना योग्य नहीं है । इसके सिवाय यह जो वाक्य कह रहा है, वह तो बड़े शिक्षाप्रद हैं । यथाः-कोई 'मूर्ख' कहे तो सोचना चाहिए कि कहने वाला यह शिक्षा दे रहा है कि मैं ने अनन्त जन्म धारण करके अनन्त संसार में जन्ममरण करके अनेक दुःख उठाये हैं। फिर भी मेरी अक्ल ठिकाने नहीं आई । इसलिए यह कहता है कि अब तो तू ज्ञानी बना है, जरा समझ । इन कार्यों को छोड़ दे ! ___ अगर कोई 'कर्महीन' अथवा 'अकर्मी' कहे या कहे कि 'तेरा खोज मिट जाय' तो यह वचन सुन कर क्षमाशील पुरुष को सोचना चाहिए यह तो मुझे मोक्ष प्राप्त करने का आशीर्वाद देता है, क्यों कि जो कर्महीन अथवा अकर्मी होता है, वही मोक्ष पाता है और उसी का खोज मिटता है। ___अगर कोई ‘साला' कहे तो सोचना चाहिए कि यह मुझे ब्रह्मचारी बनाता है; क्योंकि उत्तम पुरुष समस्त परस्त्रियों पर भगिनीभाव रखते हैं। अतः इसकी पत्नी भी जब मेरी बहिन है तो यह मुझे 'साला' कहे तो क्या अनुचित है ? इस प्रकार प्रत्येक बात को सीधी तरह समझी जाय तो वह सुखरूप बन जाती है। औषध की कटुता की ओर न देख कर उसके गुणों पर ही विचार करना चाहिए। क्षमाशील को यह भी सोचना चाहिए कि जिसके पास जैसी वस्तु है वह वैसी ही दे सकता है । वह दूसरी वस्तु कहाँ से लाएगा ? हलवाई की दुकान पर मिठाई मिलती है और चमार की दुकान पर जूते मिलते हैं । इसी प्रकार उत्तम जनों से अच्छे वचन प्राप्त होते हैं और अधम जनों से खराब वचन सुनने को मिलते हैं। अगर तुझे गाली बुरी लगती है तो उसे तू ग्रहण ही क्यों करता है ? उसे तू अस्वीकार कर दे और अपने हृदय की पवित्रता को कलुषित मत होने दे। कोई विवेकी पुरुष अपने सुवर्ण-पात्र में विष्ठा नहीं भरता। गाली देने वाला अपने सुकृत रूपी खजाने को नष्ट करता है, लुटाता है और मेरे कर्मों की निर्जरा करता है। अतः यह मेरा बड़ा उपकारी है।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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