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________________ २७० ] * जैन-तत्व प्रकाश इस धर्मभावना का चिन्तन श्रीधर्मरुचि अनमार ने किया था । चम्पा नगरी में श्रीधर्मरुचि अनगार मासखमण का पारणा करने के निमित्त नागश्री ब्राह्मणी के घर पहुँचे । उस दिन नागश्री ने भूल से कडुए तुंबे का शाक बनाया था । ब्राह्मणी ने जान-बूझकर वही शाक मुनि को बहरा दिया। मुनि वह शाक ले गये । उपाश्रय में जाकर अपने गुरुजी को दिखलाया । गुरुजी ने कहा— कठोर तपश्चरण करने से तुम्हारा कोठा निर्बल हो गया है । अगर यह विषैला आहार खाओगे तो तुम्हारी मृत्यु हो जायगी । इसलिए इसे ले जाओ और निरवद्य भूमि देखकर परठ दो । धर्मरुचि अनमार ने ईंटों को पकाने की जगह परीक्षा के लिए उस शाक का एक बूँद पृथ्वी पर डाला । उसी समय अनेक चीटियाँ उस बूँद के पास आ गई और शाक खाकर मर गई। मुनि ने यह देखकर विचार किया - गुरुजी ने फरमाया है कि निरवद्य जगह (जहाँ डालने से कोई जीव मरे नहीं) में इस शाक को परठ दो, मगर यहाँ सिर्फ एक बूँद डालने से इतनी चीटियाँ मर गई और बड़ा अनर्थ हो गया । तो फिर सारा शाक परठने से कितना अनर्थ होगा ! इस प्रकार सोचते-सोचते उन्हें विचार आया—- ठीक निरवद्य जगह तो मेरा ही पेट है। शरीर तो नाशवान् है ही । यह नाशवान् शरीर अगर जीवरक्षा का निमित्त बन सकता हो तो उत्तम है - महान् लाभ का कारण है । इस प्रकार विचार करके उस विषमय शाक को ले स्वयं खा गये । थोड़ी ही देर में सारे शरीर में दाह उत्पन्न हो गया । फिर भी मुनि - राज अखण्ड समभाव में स्थिर रहे । आयु पूर्ण करके सर्वार्थसिद्ध विमान में उत्पन्न हुए । अगले भव में कर्मों का क्षय करके मोक्ष प्राप्त करेंगे । इन बारह भावनाओं में से जिसने एक-एक भावना का ही चिन्तन किया, उसका भी परम कल्याण हुआ। तो जो जीव बारहों भावनाओं का चिन्तन करेगा, उसके मोक्ष प्राप्त करने में क्या सन्देह है ? ऐसा जान कर श्रीउपाध्याय परमेष्ठी सदैव भावनाओं का चिन्तन करते हैं ।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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