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________________ उपाध्याय [२९६ की प्राप्ति होना अत्यन्त कठिन है। इसलिए मेरी आज्ञा तो यही है कि तुम लोग सम्यक्त्व और चारित्र को स्वीकार कर के मोक्ष-नगरी का महान् और अक्षय राज्य प्राप्त करो। उस राज्य पर भरत चक्रवर्ती का भी जोर नहीं चलेगा। श्रीऋपभदेव भगवान् की ऐसी उत्तम बोधदायक और हितकर वाणी सुनकर ६८ भाइयों ने एक ही साथ प्रतिबोध पाया। दीक्षा लेकर, उत्तम संयम का पालन करके, समस्त कर्मों का सम्पूर्ण विनाश करके अन्त में सिद्धि का असीम, अनन्त और अक्षय साम्राज्य प्राप्त किया। (१२) धर्म भावना धर्म के स्वरूप और माहात्म्य आदि का चिन्तन करना धर्मभावना है। यथा-हे जीव ! मनुष्यजन्म की सार्थकता सिर्फ निर्वाण प्राप्त करने में ही है। मनुष्यभव के अतिरिक्त किसी अन्य भव से मोक्ष की प्राप्ति भी नहीं होती। अतएव पूर्वकृत पुण्य के उदय से जिसे मनुष्यभव आदि उत्तम सामग्री उपलब्ध हुई है, उसे धर्म का आचरण करके उसे सफल बनाना चाहिए । कहा भी है: धर्मो विशेषः खलु मानवानाम्, धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः । पशुओं और मनुष्यों में धर्म का ही अन्तर है । जो प्राणी धर्म से हीन हैं वह पशुओं के समान हैं। अतएव मनुष्य की मनुष्यता धर्माचरण करने में ही है । जिनेन्द्र भगवान् ने धर्म का मूल दया है, ऐसा फरमाया है। कहा भी है: दया धर्म का मूल है। अतएव दयामूलक धर्म का आचरण करके अपने जीवन को सफल बनाना ही मनुष्य का सर्वोत्तम कर्चव्य है।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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