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ॐ जैन-तत्त्व प्रकाश
रानियों ने दर्द का कारण समझ लिया और अपने हाथों के कंकण उतार कर रख दिये । सिर्फ सौभाग्य के चिहन रूप एक कंकण को हाथों में रहने दिया और चन्दन घिसने लगीं । कंकणों की आवाज़ बंद होने से नमिराज ने पूछा-पहले बहुत आवाज हो रही थी, अब शान्ति कैसे मालूम हो रही है ? रानियों ने शान्ति का सच्चा कारण बतला दिया । नमिराज ने विचार किया-जहाँ अनेक हैं वहाँ गड़बड़ होती है, अशान्ति होती है, कोलाहल होता है । एकत्व में शान्ति है । इस प्रकार विचार करते-करते उनके हृदय में वैराग्य उत्पन्न होगया। उन्होंने निश्चय किया- मैं इन सब के संयोग में हूँ, बस इसी कारण दुखी हूँ । संयोग से मुक्त होना ही दुःख से मुक्त होने का एक मात्र उपाय है । इस रोग के शान्त होते ही मैं संसार के समस्त संयोगों का परित्याग करके एकत्व का अवलम्बन लूँगा और शान्ति की खोज करूँगा।
इस प्रकार का निश्चय करते ही नमिराज का रोग शान्त हो गया। निद्रा आ गई । निद्रा में नमिराज को स्वप्न आया । स्वप्न में उन्होंने सातवाँ देवलोक देखा । देवलोक देखने के साथ ही उनकी आंख खुल गई । जागने पर चित्त में फिर वही विचार उत्पन्न हुआ। उसी समय जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया। तत्पश्चात् पुत्र को राज्य देकर, चारित्र अंगीकार करके उन्होंने वनवास स्वीकार किया।
श्री नमिराज जैसे उत्तम राजा का त्रियोग होने के कारण प्रजा बहुत दुखी हुई । सम्पूर्ण नगर में विलाप का कोलाहल मच गया । उस कोलाहल को सुन कर इन्द्र को दया आई और नमिराज की दृढ़ता की परीक्षा लेने का भी विचार हुआ। शकेन्द्र न एक वृद्ध ब्राह्मण का रूप धारण किया और उनके पास आया। उसने कहा-राजर्षि ! यह सब नगर निवासी क्यों विलाप कर रहे हैं ? तब राजर्षि ने उत्तर दिया-मिथिला नगरी में एक सुन्दर वृक्ष था। वह फलों, फूलों, पत्तों और डालियों से समृद्ध था। बहुत से पक्षी इधर-उधर से आकर उस वृक्ष का आश्रय लेते थे और उसके सहारे रातबसेरा करते थे। एक दिन आँधी आई और वह वृक्ष गिर पड़ा। उसका सिर्फ