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________________ * उपाध्याय [२५७ ठेठ रह गया । उस समय सब पक्षियों ने अपने-अपने स्वार्थ की बातें स्मरण करके विलाप करना प्रारंभ किया । इसी प्रकार इस नगरी के सब लोग अपने अपने मतलब का वियोग (मेरा वियोग नहीं) देख कर रो रहे हैं। इसी तरह के ग्यारह प्रश्न इन्द्र ने पूछे और कुछ समयः पर्यन्त गृहस्थी में रहने के लिये प्रेरणा, भी की। पर राजर्षि नमिराज ने सब का सुन्दर समाधान किया । समाधान पाकर इन्द्र ने राजर्षि की स्तुति की, वन्दना की और तदनन्तर वह स्वर्ग में चला गया। श्री नमिराज संयम का पालन करके मोक्ष पधारे । (६) अशुचि भावना शरीर की अपवित्रता का विचार करना अशुचि भावना है। यथा-हे जीव ! तू अपने शरीर को स्नान-मंजन-लेपन आदि से शुद्ध-पवित्र करने की इच्छा रखता है; मगर वह कदापि शुद्ध नहीं हो सकता, क्योंकि वह स्वभाव से ही गंदा है, अशुचि है । शरीर की उत्पत्ति पर विचार कर.। यह भी देख कि शरीर के भीतर क्या भरा पड़ा है। प्रथम, तो शरीर माता के रक्त और पिता के शुक्र (वीर्य) से बना है । फिर माता के उदा में उस अशुचि स्थान में, जहाँ पर मल-मूत्र भरा रहता है, इस शरीर की वृद्धि हुई है। फिर अशुचि स्थान से यह बाहर निकलता है। बाहर निकलने के बाद माता का दूध पीकर बड़ा हुआ.। माता का दूध भी, जैसे शरीर में रक्त-मांस रहता है वैसे ही रहता है। अब जिस अनाज पर शरीर अवलंबित है, वह भी अपवित्र खेत में उत्पन्न होता है । भला कोई कभी खेत में चौका लगाने जाता है ? अब जरा शरीर की भीतरी हालत का भी विचार कर । शरीर में सात धातु हैं:-(१) रस (२) रक्त (३) मांस (४) मेद (५) हाड़ (६) मजा और (७) शुक्र । जो आहार खाया जाता है वह पित्त के तेज से पक कर पहले चार दिनों में रस बनता है । उसके बाद के चार दिनों में रस से रक्त बनता है। उस प्रकार चार-चार दिनों में एक-एक धातु बनते-बनते अन्त में एक महीने में अन्तिम धातु वीर्य बनता है। यह सभी धातु अपवित्र हैं।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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