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________________ ® उपाध्याय [२५५ आत्मा की ओर भी कुछ ध्यान दे । आखिर तो अकेला आत्मा ही अन्त में रहने वाला है। इस प्रकार की एकत्वभावना का मृगापुत्र ने चिन्तन किया था। सुग्रीव नगर में बलभद्र राजा था। उसकी रानी का नाम मृगावती था और उसके पुत्र का नाम मृगापुत्र था। मृगापुत्र एक बार अपनी सुन्दर और मनोहर स्त्रियों के बीच, अपने रत्नजटित महल में बैठा हुआ बाजार का ठाठ देख रहा था। संयोगवश उधर से मार्ग में जाते हुए कृशकाय किन्तु तेजस्वी और तपोधन मुनि पर उसकी दृष्टि पड़ी । मुनिराज को देखते ही मृगापुत्र को जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया । उसे स्मरण आया कि पूर्वभव में मैं ने भी इसी प्रकार का संयम पाला था । यह स्मरण आते ही उसे संयमी बनने की इच्छा हुई । आखिर संयम ग्रहण करके, जंगल के मृग की भाँति अकेले वनवासी रह कर संयम की आराधना करके उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया। (५) अन्यत्व भावना जगत् के समस्त पदार्थों से आत्मा को भिन्न समझकर उस भिन्नता का बार-बार चिन्तन करना अन्यत्व-भावना है । जैसे-हे जीव ! जगत् में सब स्वार्थी हैं। जब तक उनका मतलब होता है तभी तक सब अपना आदरसत्कार करते हैं; अपनी आज्ञा में रहते हैं और 'जी हाँ, जी हाँ' करते हैं । मतलब पूरा हो जाने पर कोई किसी को नहीं पूछता। इस प्रकार की भावना राजर्षि नमि ने भाई थी। नमिराज मिथिलानगरी के राजा थे । उनके शरीर में एक बार दाहज्वर का रोग उत्पन्न हो गया । इस रोग की शांति के लिए उनकी १००८ रानियाँ पावन चन्दन घिस कर अपने प्रिय पति के शरीर को चुपड़ रही थीं । रानियों के हाथ में कंकण पहने हुए थे। चन्दन घिसते समय कंकणों के घर्षण से खन-खन की जो आवाज़ हुई उससे नमिराज को और अधिक वेदना मालूम पड़ने लगी। विचक्षण
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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