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________________ * जैन-तत्व प्रकाश २५४ ] त्वचारूप पुतली में तो प्रतिदिन अनेक कौर अनाज के पड़ते हैं। फिर उसमें कितनी बदबू न होगी ? फिर दुर्गंध की भंडार रूप यह थैली देखकर क्यों मोहित होते हो ? अपने पिछले भवों को याद करो । पिछले तीसरे भव में मैं राजा थी और आप छहों मेरे मंत्री थे । हम सातों ने एक साथ दीक्षा धारण की थी । दीक्षा के समय में मैंने धर्म कार्य में कपट किया था । उसी कपट के कारण मुझे स्त्री रूप में जन्म लेना पड़ा है । बन्धुओ ! जरा संसार के स्वरूप का विचार करो । धिक्कार है इस संसार को ! मल्लिकुमारी का यह कथन सुन कर छहों राजाओं को जातिस्मरण ज्ञान हो गया। छहों को प्रतिबोध प्राप्त हुआ। छहों ने मल्लिकुमारी के साथ दीक्षा अंगीकार की और केवलज्ञान प्राप्त करके मोक्ष प्राप्त किया । (४) एकत्व भावना आत्मा की एकता का, पृथक्ता का, एकाकीपन का चिन्तन करना एकत्व भावना है । यथा: - हे आत्मन् ! यथार्थ दृष्टि से विचार कर तो प्रतीत होगा कि इस जगत् में कोई किसी का साथी नहीं है । तू अकेला ही श्रया है और अकेला ही जायगा । पापों का सेवन करके तू ने जो धनोपार्जन किया है, ऐश्वर्य की सामग्री जुटाई है, उसका एक छोटा सा अंश भी तेरे साथ नहीं जायगा । पूर्व-कर्म के उदय से तुझे जो परिवार मिला है उसमें से भी परलोक- प्रयाग के समय कोई साथ नहीं देगा । धन धरती में या धरती पर, जहाँ होगा वहीं रह जायगा । पशु-पक्षी घर में रह जाएँगे । प्राणप्यारी पत्नी दरवाजे तक और भाईबंद श्मशान तक ही साथ जाएँगे । औरों की तो बात ही क्या है, जिस शरीर को अपना मान कर तूने बड़े प्रेम से पाला है, वह शरीर भी चिता में भस्म हो जायगा । परलोक में वह भी साथ नहीं जा सकता | निसर्ग का यह अमिट नियम है। इसका उल्लंघन करने की क्षमता किसी में नहीं है । हे जीव ! ऐसा समझ कर एकान्त भाव धारण कर । जैसे शरीर और परिवार की सेवा में दत्तचित्त रहता है, वैसे ही 1
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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