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________________ [ २३३ के पाँच द्वारों के पाँच अध्ययन हैं। उनमें हिंसा, सत्य, चोरी, मैथुन र परिग्रह का वर्णन है । दूसरे श्रुतस्कंध में संवरद्वार के पाँच अध्ययन हैं। इन में दया के ६० नाम बतलाये गये हैं । अहिंसा, सत्य, चौर्य, are और अपरिग्रह, यह पाँच संवर के भेद और गुण बतलाये गये हैं । पहले इस सूत्र के ६३११६००० पद थे । आजकल १२५० श्लोक ही उपलब्ध हैं । * उपाध्याय [११] विपाकसूत्र - इसके दो श्रुतस्कंध हैं। पहला दुःखविपाक और दूसरा सुखविपाक । पहले श्रुतस्कंध में मृगा लोढ़ीया आदि पापी जीवों का वर्णन है और बतलाया गया है कि पापकर्म का फल कितना भयानक होता है ! दूसरे सुखविपाक श्रुतस्कंध में सुबाहुकुमार वगैरह दस पुण्यशाली पुरुषों का वर्णन हैं, जिन्होंने दान पुण्य तप संयम का सेवन करके सुख प्राप्त किया है । इस विपाकसूत्र के पहले १२४००००० पद और ११० अध्ययन थे । अाजकल सिर्फ १२१६ श्लोक हैं । इस प्रकार ११ अंग थोड़े-बहुत अंशों में विद्यमान हैं । [१२] दृष्टिवाद - इस बारहवें अंग में पाँच वत्थु [ वस्तु ] थी । पहली वत्थु के ८८००,००० पद थे। दूसरी वत्थु के ८१०५००० पद, तीसरी वत्थु में चौदह पूर्वी का समावेश था। इन चौदह पूर्वो का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है: [१] उत्पादपूर्व - में छह द्रव्यों का वर्णन था । इस पूर्व में छह वत्थु थीं; ११००००० पद थे । पूर्व [२] अग्रायणीय पूर्व - में द्रव्य, गुण, पर्याय का वर्णन था । इस में १४ वत्थु थीं और २२००००० पद थे । (३) वीर्यप्रवाद पूर्व में सब जीवों के बल, वीय, पुरुषाकार, पराक्रम संबंधी वर्णन था । इस पूर्व में ८ वत्थु थीं और ४४००००० पद थे । (४) अस्ति नास्तिप्रवाद पूर्व में शाश्वती और अशाश्वती वस्तुओं का स्त्ररूप निरूपित किया था । इसमें १६ वत्थु और ८८००००० पद थे।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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