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* श्राचार्य
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(२) शास्त्र के अर्ध-परमार्थ का ज्ञाता होना श्राचार्य की सूत्र सम्पदा है । इसके भी चार भेद हैं: -- [१] जिस काल में जितने शास्त्र उपलब्ध हों, उन सब के ज्ञाता होने से विद्वानों में श्रेष्ठ होना युग-प्रधानता है । [२] शास्त्रीय ज्ञान की बार-बार परावर्त्तना कर के गंभीर और निश्चल ज्ञानी बनना आगमपरिचितता है । [३] कदापि किंचित् भी दोष न लगने देना उत्सर्ग मार्ग है और अनिवार्य कारण उपस्थित होने पर, पश्चाताप के साथ किंचित् दोप लगने पर प्रायश्चित लेकर शुद्ध हो जाना अपवादमार्ग है । इन दोनों मार्गों की विधि के यथातथ्य ज्ञाता होना उत्सर्ग - अपवाद - कुशलता है । [४] स्वसमय ( जैन सिद्धान्त) और परसमय (अन्यमत) के ज्ञाता होना स्वसमयपरसमयदक्षता गुण है ।
(३) सुन्दर आकृति और तेजस्वी शरीर के धारक होना तीसरी शरीरसम्पदा है । इसके भी चार भेद हैं: - [१] अपने माप से आपका शरीर एक धनुष लम्बा होना प्रमाणोपेत शरीर कहलाता है । यह गुण पाया जानाचार्य का प्रमाणोपेत गुण है । [२] लँगड़े, लूले, काने होना अथवा १६ या २१ उंगलियाँ होना अथवा इसी प्रकार के किसी अन्य अपंगता के दोषों से रहित होना 'कुट' गुण है । [३] बधिरता, अन्धता आदि दोषों से रहित होना पूर्णेन्द्रियता गुण है । [४] तप में, बिहार में, संयम एवं उपकार के कार्य में थकावट न आवे, ऐसा स्थिर, दृढ़ और सबल संहनन होना दृढ़संहननी गुण है ।
(४) वाक्चातुर्य अर्थात् भाषण करने की चतुरता होना आचार्य की चौथी वनसम्पदा है | इसके भी चार प्रकार हैं: -- जिनका कोई खण्डन न कर सके ऐसे निर्दोष और उत्तम वचन बोलना, किसी को रे तू आदि हल्के शब्दों से संबोधित न करना और जिन्हें सुनकर प्रतिवादी भी चकित रह जाएँ, ऐसे प्रभावशाली वचन बोलना प्रशस्त वचनसम्पदा है । [२] कोमल मधुर, गंभीर वचन मिठास के साथ बोलना मधुरवचनसम्पदा है । [३] राग, द्वेष, पक्ष-पात और कलुषता आदि दोषों से रहित वचन बोलना अनाश्रित वनसम्पदा है । [४] मणमणादि दोषों से रहित सुस्पष्ट और सार्थक वचन बोलना, जिससे बालक भी समझ जाय, स्फुटवचनसम्पदा है ।