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________________ २१२ ] ॐ जैन-तत्त्व प्रकाश (५) शास्त्र एवं ग्रन्थ वांचने की कुशलता होना पाँचीं वाचनासम्पदा कहलाती है । इस के भी चार भेद हैं:-(१) शिष्य की योग्यता को जान कर, सुपात्र शिष्य को उतना ही ज्ञान देना, जितना वह ग्रहण और धारण कर सके, तथा जैसे सर्प को दूध पिलाया जाय तो वह विष रूप परिणत होता है, उसी प्रकार कुपात्र को दिया हुआ ज्ञान मिथ्यात्व आदि दुर्गुणों को बढ़ाता है; अतः कुपात्र को ज्ञान न देना जोगो' गुण है । (२) विना समझा और बिना रुचा ज्ञान सम्यक् प्रकार से परिणत नहीं होता और न अधिक समय तक टिकता ही है । ऐसा समझकर पहले दी हुई वाचना को शिष्य की बुद्धि के अनुसार उसे समझा कर रुचावे अँचावे और फिर आगे वाचना दे। यह परिणत गुण है। [३] जो शिष्य अधिक बुद्धिमान् हो, सम्प्रदाय का विवाह करने में, धर्म को दिपाने में समर्थ हो, उसे अन्य कार्यों में अधिक न लगा कर, आहार-वस्त्र आदि की साता उपजा कर, यथायोग्य प्रशंसा आदि द्वारा उत्साह बढ़ा कर, शीघ्रता के साथ सूत्र आदि का अभ्यास पूर्ण कराना निरपायिता गुण है । [४] जैसे पानी में तेल की बू'द खूब फैलती है, उसी प्रकार ऐसे शब्दों में वाचना देना कि शब्द थोड़े होने पर भी अर्थ गंभीर और व्यापक हो तथा दूसरा सरलता से समझ भी जाय, सो निर्वाहणा गुण है। (६) स्वयं की बुद्धि प्रबल-तीक्ष्ण होना मतिसम्पदा है। इसके भी चार प्रकार हैं:-[१] शतावधानी के समान सुनो, देखी, घी, चखी और स्पर्श की हुई वस्तु के गुणों को एकदम ग्रहण कर लेना अवग्रह गुण कहलाता है । [२] उक्त पाँचों का तत्काल निर्णय कर लेना ईहा गुण कहलाता है । [३] उक्त प्रकार से निर्णय करके तत्काल निश्चयात्मक बना लेना अवाय गुण है । और [४] निश्चित की हुई वस्तु को ऐसी दृढ़ता के साथ धारण करना कि जिससे दीर्घ काल तक विस्मरण न हो, समय पर तत्काल स्मरण श्रा जाय सो धारणा नामक गुण है । .. (७) परवादियों को पराजित करने की कुशलता को सातवीं प्रयोगसम्पदा कहते हैं। यह भी चार प्रकार की है:-[१] 'मैं इससे वाक्चातुर्य
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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