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________________ २१०] ॐ जैन-तत्व प्रकाश प्रधान-अटल वचनों का उच्चारण करने वाले । (३६) शौचप्रधान-द्रव्यतः लोक में अपवाद करने वाले मलीन वस्त्र आदि न धारण करने वाले और भावतः पाप रूप मैल से मलीन न होने वाले । इन छत्तीस गुणों में से प्रथम से लेकर दसवें तक दस गुणों का होना आवश्यक है । आगे के (११-१४ तक) गुण स्वाभाविक होते हैं । आचार्य की आठ सम्पदा जैसे गृहस्थ धन, कुटुम्ब आदि की सम्पदा से शोभा पाता है, उसी प्रकार आचार्यजी आठ सम्पदा से शोभा पाते हैं । प्रत्येक सम्पदा के चारचार प्रकार हैं। सबके मिलकर ३२ भेद होते हैं और विनय के ४ गुण उनमें मिला देने से ३६ गुण हो जाते हैं। आठ सम्पदाओं का स्वरूप इस प्रकार है (१) जो ज्ञानादि पूर्वोक्त पाँच प्राचार आदरने योग्य हैं, उनका आचरण करना आचार सम्पदा है। इसके चार भेद हैं:-[१] पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति रूप तेरह प्रकार के चारित्र के गुणों में ध्रुवनिश्चल-स्थिर अडोल वृत्ति सदैव रखना चरण-गुणध्रुवयोगयुक्तता है। [२] जातिमद आदि आठों मदों को त्यागकर सदा निरभिमान-नम्र रहना मार्दवगुण-सम्पन्नता है। [३] शीत उष्णकाल में ग्राम में एक रात्रि और नगर में पाँच रात्रि से अधिक विना कारण नहीं रहते और चातुर्मास में चार महीने तक एक ही स्थान में रहते हैं। इस प्रकार नवकल्पी विहार करना अनियतवृत्ति है। और [४] कामिनियों के मन को हरण करने वाले लोकोचर रूप-सम्पत्ति के धारक होने पर भी सर्वथा निर्विकार और सौम्य मुद्रा वाले होकर रहना 'अचंचल गुण कहलाता है। * इतवार से इतवार पर्यन्त रहने को एक रात्रि और पाँच इतवारों तक रहना पाँच रात्रि निवास कहलाता है। एक मास में पाँच दफा ही एक वार आता है। अर्थात् जहाँ एक दिन का आहार मिले वहाँ एक रात्रि से अधिक न रहना और बड़ा नगर हो तो पाँच रात्रि से एक मास से) अधिक न रहना । ज्ञानाभ्यास, रुग्णता या वृद्धावस्था के कारण अधिक काल तक रहना अलग बात है।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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