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________________ १८० ] ॐ जैन-तत्त्व प्रकाश तुझे ही दुःख भुगतना पड़ेगा । कदाचित् तेरी आयु पूर्ण होने तक सुख के साधन बने रहे तो मृत्यु के समय तुझे अवश्य ही इनका त्याग करना पड़ेगा । जैसे तेरे बाप-दादा सर्वस्व छोड़ कर चल दिये थे, उसी प्रकार तुझे भी छोड़ कर जाना पड़ेगा | ऐसी स्थिति में भी ममता के कारण तुझे ही दुःख होगा । तू भी मुहम्मद गजनवी बादशाह की तरह रोता और पछताता हुआ अपना रास्ता नापेगा । आत्मन् ! भलीभाँति सोच । जिसे तू सुख मान रहा है, वह वास्तव में सुख नहीं है। जिसे तू सुख की सामग्री समझता है, वह वास्तव में दुःख की सामग्री है । पर पदार्थों से आत्मा को वास्तविक सुख कभी मिल ही नहीं सकता। ऐसा जानकर समस्त पर पदार्थों से ममता त्याग कर सुखी बन । संसार में कोई भी पदार्थ एक-सा नहीं रहता और न जीवन ही सदैव स्थायी रहता है। जल्दी सावचेत हो, कौन जाने कल या अगले क्षण क्या होगा ?' इस प्रकार जगत् की अनित्यता का विचार करना नित्यानुप्रेचा है । (२) 'चेतन ! तू स्वजनों को अपना आधार मानता है, पर वास्तव में कोई किसी को शरण नहीं दे सकता। जब तक तेरे पास धन है और तेरा शरीर सशक्त है, उनके काम में आने योग्य है, तभी तक वे तेरी सहायता करेंगे । जब तू निर्धन और अशक्त हो जायगा, तब वही तेरे प्यारे जन तेरा तिरस्कार करेंगे, तुझे शारीरिक और मानसिक दुःख देकर पीड़ा पहुँचा - एँगे, तेरे शत्रु बन जाएँगे । कदाचित् वे ऐसा न करें तो भी तुझे दुःख से बचाने में समर्थ तो नहीं ही हो सकेंगे । रोग आने पर कौन तुझे पीड़ा से मुक्त कर सकता है ? तुझे बुढ़ापे और मौत से कौन बचा सकता है ? अगर दीर्घ दृष्टि से विचार कर तो प्रतीत होगा कि श्री जिनेश्वरदेव का कहा हुआ धर्म ही भव भव में सहायक होता है । वही दुःख और शोक से बचाकर शाश्वत शान्ति और सुख प्रदान करने में समर्थ हो सकता है । उसी का शरण ग्रहण कर । ऐसा करने से ही तू सुखी बन सकेगा।' इस प्रकार विचार करना अशरणानुप्रेक्षा है । (३) 'हे प्राणी ! अकेला ही आया है और अकेला ही जाएगा । जिस शरीर को तू अत्यन्त प्रेमपात्र समझता है, जिसका पालन-पोषण करने में
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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