SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 223
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ॐ श्राचार्य , [१७६ तू ने अनन्त परिताप सहन किया । अब तो चेत ! अपाय करने वाले राग-द्वेष से निवृत्त हो । अगर तूने भगवान् की आज्ञा का आराधन न किया तो घोर दुर्गति का अतिथि बनेगा।' इस प्रकार विचार करना । (३) विपाकविचय'हे जीव ! तूने जैसे शुभ या अशुभ कर्म उपार्जन किये हैं, उनके फलस्वरूप ही तुझे सुख और दुःख की प्राप्ति हुई है। इसको भोगे बिना छुटकारा नहीं मिल सकता । अब हर्ष या शोक क्यों करता है ?' इस प्रकार कर्मों के शुभअशुभ फल का विचार करना । (३) संस्थानविचय-'अरे जीव ! वीतराग ने कहा है कि एक दीपक उलटा, उसके ऊपर दूसरा दीपक सीधा और फिर उसके ऊपर तीसरा दीपक उलटा रखने से जैसा आकार बनता है, वैसा ही आकार लोक का है । नीचे के दीपक के स्थान पर सात नरक, पहले और दूसरे दीपक के सन्धिस्थल पर मध्यलोक, बीच के दीपक के स्थान तक पाँचवाँ ब्रह्म देवलोक, ऊपर के दीपक तक अनुत्तर विमान और ऊपर सिद्ध भगवान् हैं । इस प्रकार लोक के आकार का चिन्तन करना। यह चार धर्मध्यान के पाये हैं। धर्मध्यान के चार लक्षण-(१) वीतरागप्रणीत शास्त्र के अनुसार क्रियाओं को अंगीकार करने की रुचि होना आज्ञारुचि है। (२) जीव, अजीव, पुण्य, पाप, श्रास्त्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष, इन तत्त्वों का सत्य स्वरूप जानने की रुचि होना निसर्गरुचि है। (३) गुरु आदि के सदुपदेश को श्रवण करने की रुचि होना उपदेशरुचि है । (४) द्वादशांग आदि शास्त्रों को सुनने की रुचि होना सूत्ररुचि है। थर्मध्वान के चार अवलम्बन हैं:-(१) वाचना (२) पृच्छना (३) परिवर्तना और अनुप्रेक्षा । (इनका अर्थ स्वाध्यायतप के विवरण में दिया जा चुकी है)। धर्मध्यानी की चार अनुप्रेक्षाएँ है: (१) हे जीव ! जगत् के मिलने और बिछुड़ने के स्वभाव वाले पौद्गलिक पदार्थों से तू प्रीति करता है, परन्तु यही प्रीतिगतरे दुःख का कारण होगी । ज्यों ही तेरे पुण्य का क्षय हुआ कि देखते देखते हीसुख के समस्त साधन तिरोहित हो जाएँगे। उस समय भी
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy